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सावन मास प्रकृति में नवजीवन भर देता है। हरीतिमा की चादर और वर्षा की फुहार मानव तन-मन को हुलसाती है। उसमें रस का संचार करती है, जिसस प्रेम स्वतः छलकने लगता है। संवेदनशील मन में नए विचार और शब्द आते हैं और साहित्य सर्जना के अंकुर फूट पड़ते हैं। इसलिये सावन का सुहाना मास साहित्यकारों को बेहद प्रिय रहा है। संस्कृत साहित्य में तो कालिदास के वर्षा ऋतु के वर्णन को सबसे अनुपम पक्ष माना जाता है।

हिंदी साहित्य भी वर्षा की फुहारों से यौवन को भिगो देने वाली बारिश में मन का उल्लास-उमंग या विरह पीड़ा के रोचक वर्णनों से समृद्ध हुआ है। साहित्यकारों ने श्रावण मास को पावन मास के रूप में चित्रित करने के साथ ही प्रेम-प्रीति के सौन्दर्य से सराबोर किया है। सूर, तुलसी, जायसी आदि कवियों ने सावन मास का सुंदर और सरस चित्रण किया है।

आधुनिक हिंदी साहित्य में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत , सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा आदि ने सावन पर लेखनी चलाकर अपना तन-मन भिगोया है। यहां पर प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत के सावन का आनंद लीजिये –

ढम ढम ढम ढम ढम ढम, बादल ने फिर ढोल बजाए।
छम छम छम छम छम छम, बूँदों ने घुंघरू छनकाए।।

इसी तरह महादेवी वर्मा लिखती हैं –
नव मेघों को रोता था जब चातक का बालक मन,
इन आँखों में करुणा के घिर घिर आते थे सावन।

इसी तरह रामधारी सिंह दिनकर सावन की सुंदरता को निहारकर लिखते हैं –

जेठ नहीं, यह जलन हृदय की, उठकर जरा देख तो ले,
जगती में सावन आया है, मायाविनी! सपने धो ले।
जलना तो था बदा भाग्य में कविते! बारह मास तुझे,
आज विश्व की हरियाली पी कुछ तो प्रिये, हरी हो ले।

इसी तरह मशहूर गीतकार गोपालदास नीरज ने लिखा है –

यदि मैं होता घन सावन का,
पिया पिया कह मुझको भी पपिहरी बुलाती कोई।

इस तरह सावन की सुषमा साहित्यकारों को सृजन के लिए प्रेरित करती रही है। हालांकि अब सावन से जुड़ा साहित्य सिकुड़ रहा है। बढ़ते शहरीकरण और भौतिक जीवनशैली का असर हर ओर पड़ा है। सावन के साहित्य पर भी पड़ा है। लोक परंपराए दम तोड़ रही हैं। शहर के लोग तो पूछते हैं कि सावन किस महीने में पड़ता है ? आज आवश्यकता इन परंपराओं को सजोने की है ताकि तन और मन की शीतलता-चंचलता बनी रहे।

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