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(पवन सिंह)
विश्लेषण लिखने से पहले मैं एक शेर पेश-ए-खिदमत करना चाहता हूं...वसीम बरेलवी साहेब का शेर है गौर फरमाइए-
"मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो।
के मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारो।"
ये शेर भाजपा पर सौ फीसदी "चूड़ी डाइट" करके बैठता है। 

मैं सिलसिलेवार ज़िक्र करना चाहूंगा और 2014 से आरंभ करूंगा। भाजपा को बतौर एक राजनीतिक संगठन, इसे मोदी-शाह ( यानी दुकड़ी) का एक जेबी संगठन बना दिया गया। भाजपा के ही अनेक बड़े नामचीन नेताओं को इन दोनों नेताओं ने साइड लाइन किया ताकि इन दोनों का एकछत्र राज कायम हो सके। भाजपा को भाजपा करने वाले तमाम नेता वो चाहे आडवाणी हों या मुरली मनोहर जोशी, थिंक टैंक गोविंदाचार्य हों या गडकरी...सभी को डेंट मारने की कोशिश ही पतन की ओर बढ़ने की सूत्रधार रही। वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान के बाद इस "दुकड़ी" के निशाने पर उत्तर प्रदेश के भी एक फायर ब्रांड नेता थे..। इस दुकड़ी ने 2014 के बाद से कोई ऐसा काम नहीं किया जो आम आदमी के सरोकारों से सीधा जुड़ता हो। 

2014 के पहले तक यह "दुकड़ी" ज्यों-ज्यों कहती आई थी उन सबको एक सिरे से नकारती रही। वह चाहे विषय हर साल करोड़ों नौकरियां देने का हो या महंगाई रोकने का हो या फिर रोजगार के अवसरों की तमाम संभावनाओं को खोलने का हो... लोकायुक्त का झुनझुना हो या फिर चीन के संदर्भ में लाल आंखें दिखाने का..."दुकड़ी" को लगा कि मीडिया को खरीद कर और अपने कुख्यात आईटी सेल की बदौलत वह आम जनता के मसलों को तथाकथित प्राचीन गौरव और धर्म व हिन्दुत्व की चाशनी में लगातार डुबोये रखेगी। इसके साथ जब "दुकड़ी" ने 2019 का लोकसभा चुनाव भी जीत लिया तो उसे लगा कि उन्हें अब आरएसएस जैसे सशक्त संगठन को ढोने की जरूरत नहीं है। 

"आत्ममुग्धता के बाथरूम" में रेन कोट पहनकर नहाती यह "दुकड़ी" ये भूल गई कि चंद लाख भरे पेट वालों से ही उनका "राजनीतिक शोरूम" नहीं चमक रहा है बल्कि गरीब और मध्यम वर्ग भी उनका बड़ा समर्थक है। भोजन, पानी, कपड़ा, मकान, नौकरी, रोजगार भी उसकी एक बड़ी जरूरत है। यूथ ने "दुकड़ी" का खूब साथ दिया और किसानों ने भी लेकिन "दुकड़ी"को लगा कि वो हैं तो ये धरा है। ये धरा भी इसलिए सुरक्षित है क्योंकि "अविनाशी" हैं...। जनता के सरोकारों से दूर होने की सजा ऐसी ही होती है। भूखे पेट भोजन कभी नहीं हुआ करते....। धर्म अगर रोजी-रोटी से कट जाए तो देर-सबेर तर्क और सवालों को जन्म देता है, और यही हुआ.... कांग्रेस और सपा के आई टी सेलों ने लगातार मूल विषयों पर हमले जारी रखें और यूथ को जोड़ना शुरू किया। 

धर्म पर तार्किक बहस शुरू हो गई। रोजगार के मुद्दे जग उठे। छोटे व्यापारियों को भी लगा कि कब तक धर्म के सहारे जिया जाएगा। लोगों को धर्म के हिप्नोटिज्म से बाहर लाने की कोशिशें रंग लाईं। लोगों में यह तथ्य अंततः घर कर गया कि काम के अवसर होंगे तो वे दस किलो अनाज खुद ही खरीद लेंगे। इसी बीच ‌सुप्रीम कोर्ट ने चंदा प्रकरण खोल दिया जिसने सरकार को पूरी तरह से एक्सपोज़ कर दिया। जिस सरकार ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके हिंदू-मुस्लिम का सफलतम खेल खेला उसी सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्मों का इस्तेमाल विपक्ष ने शुरू किया और चंदा प्रकरण को गांव-गांव तक पहुंचा दिया। सोशल मीडिया आम आदमी को यह बताने में सफल रहा कि आपको 50/-की दवा 250/-में क्यों मिल रही है। बीफ कंपनियों से चंदा खाने वाले धर्म की दुहाई दे रहे हैं। मंहगाई, बेरोजगारी से तंग लोगों ने सोचना शुरू किया...और नतीजा 2024 के चुनाव परिणाम हैं। 

सरकार किसकी बनेगी या नहीं बनेगी इस पचड़े में मैं नहीं पड़ना चाहता लेकिन ये परिणाम राजनीतिक अहंकार को धूलधूसरित करते हैं। हिन्दू जगा रहे थे वह जब जगा तो उसने वोट डाल कर पूछा कि सरकार जब हिन्दुत्व वादी है तो हिन्दू पांच किलो का मोहताज हुआ क्यों?.... फिलहाल हिन्दू जग चुका है और वह अपना हक मांग रहा है...!!
बीजेपी के अगुवाई वाले गठबंधन NDA यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में कुल 41 दल शामिल हैं। वहीं विपक्ष के INDIA ब्लॉक में 37 पार्टियां हैं। इनमें नेशनल पार्टियों सहित राज्यों के स्थानीय दल शामिल हैं। भाजपा अगर अकेले लड़ती तो जो सीटें अभी नजर आ रही हैं वो भी न दिखतीं...। 

"दुकड़ी" को समझने की जरूरत है कि जनता मूर्ख नहीं होती है, अगर वह आपको पसंद करती हैं तो पेशेंस रखती है लेकिन पेशेंस (PATIENCE) की भी एक्सपाइरी डेट होती है। एक गीत से लेख पर विराम लगाया हूं---
"हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेगे..!!
ये सबक मेहनतकशों ने दिया है...सबक सीखना न सीखना "दुकड़ों" के हाथ में है।

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