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डब्ल्यूटीसी फाइनल में ऑस्ट्रेलिया के हाथों हारने के बाद अब भारतीय टीम नए अंदाज के साथ आगाज करने के लिए तैयार है। टीम का अगला सामना वेस्ट इंडीज से होना है जिसके लिए भारतीय टीम में कई बडे़ बदलाव किए गए हैं।

इस टीम में आईपीएल दो हजार तेईस के भी कुछ चेहरों को जगह मिली है। इनमें से एक नाम है तेज गेंदबाज मुकेश कुमार का। बिहार के गोपालगंज जिले के रहने वाले मुकेश कुमार ने आईपीएल दो हजार तेईस में दिल्ली से खेलते हुए बेहतरीन प्रदर्शन किया था।

जिसकी वजह से उन्हें वेस्ट इंडीज के खिलाफ होने वाली टेस्ट और वनडे सीरीज दोनों टीमों में शामिल किया गया है। उन्नीस साल के मुकेश कुमार को वैसे तो साल दो हजार बाईस में साउथ अफ्रीका के खिलाफ

सीरीज के लिए भी बेंच में बैठाया गया था लेकिन किसी कारण वो प्लेइंग इलेवन में जगह नहीं बना पाए। गोपालगंज के काकडकुंड से टीम इंडिया तक का मुकेश कुमार के लिए किसी सपने से कम नहीं है। मुकेश की कहानी सुन आपकी भी आंखें नम हो जाएँगे।

गाँव की गलियों और खेतों में खेलने वाले मुकेश के स्टेडियम तक पहुँचने की कहानी संघर्ष भरी है। हम आपको बताएँगे कि कैसे इस गुदड़ी के लाल ने अपना मेहनत और खेल के प्रति समर्पण के दम पर ये मुकाम हासिल किया है।

मुकेश के पिता कोलकाता में ऑटो चलाते थे। बचपन से ही मुकेश को खेलने का शौक था। पिता ने बेटे की ख्वाइश को पूरा करने के लिए जो हो सका वो किया धीरे धीरे मुकेश स्टेट के अंडर उन्नीस टीम में सलेक्ट हुए। लेकिन घर के हालात ऐसे ना थे कि मुकेश अपने खेल को जारी रख पाए।

पिता ने मुकेश को कमाने के लिए कोलकाता बुला लिया। अब मुकेश घर चलाने के लिए पिता का हाथ बंटाने लगे। लेकिन इस दौरान भी मुकेश ने खेलना नहीं छोड़ा।

वो मेहनत करते रहे क्योंकि उन्हें एक मौके की तलाश थी जिससे उनकी माली हालत भी ठीक हो जाए और खेलना भी जारी रहे। इसी वजह से मुकेश ने सेना भर्ती में भी भाग लिया लेकिन वो भर्ती नहीं हो पाए।

अब नौबत ये आ गई कि मुकेश ने कोलकाता के एक प्राइवट क्लब से खेलना शुरू कर दिया।

यहाँ उन्हें एक मैच के पाँच सौ रुपए मिलते थे। साल दो हजार चौदह में उन्हें बंगाल क्रिकेट असोसीएशन में ट्राइल देने का मौका मिला और तब उन पर कोच राणा दे बोस की नजर पड़ी।

जिसके बाद उन्होंने साल दो हजार पंद्रह में बंगाल से अपना फर्स्ट क्लास क्रिकेट शुरू किया। अब किसी तरह मुकेश का करियर पटरी पर आया ही था कि पिता की मौत के सदमे ने उन्हें फिर से तोड़ दिया।

साल दो हजार उन्नीस में ब्रेन स्ट्रोक से उनके पिता की मौत हो गई। इसके बाद भी मुकेश ने हिम्मत नहीं हारी और अपनी मेहनत जारी रखी। फर्स्ट क्लास में अच्छे प्रदर्शन के चलते ही उन्हें साल दो हजार बाईस में इंडिया का हिस्सा बनने का मौका मिला।

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