इनके पीछे घूमती रही बिहार की राजनीति, फिर शुरू हुई चेहरे की सियासत

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चुनावी साल के आते ही बिहार में चेहरे की सियासत शुरू हो गई है। किसी को संगठन पर भरोसा है, किसी को सामाजिक आधार पर तो किसी को अपने वोट बैंक पर। सियासी ताकत बढ़ाने-बताने का तरीका चाहे जो हो, चुनाव जीतने के लिए सभी दलों को साफ-सुथरे चेहरे का नेतृत्व चाहिए, जिसमें नैतिकता और बौद्धिकता का भी चमत्कार शामिल हो।

बिहार की वर्तमान राजनीति में पहला चेहरा सुशासन का है और दूसरा जनाधार का। राष्ट्रीय स्तर पर जो चेहरा पिछले चार सालों से सत्ता के केंद्र में है, उसकी स्वीकार्यता का फ्रेम भी कम व्यापक नहीं है। ऐसे में संसदीय चुनाव के पहले चेहरे के प्रभुत्व पर विवाद लाजिमी है।

नया नहीं चेहरे पर सियासत
बिहार में चेहरे पर सियासत कोई नई बात नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का मंत्र चल निकला तो 40 में से 31 सीटें राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के घटक दलों की झोली में गिर गईं। किंतु महज डेढ़ साल बाद ही बिहार विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के चेहरे को छुपाने या परहेज करने का नतीजा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को भुगतना पड़ा, जबकि महागठबंधन ने नीतीश कुमार को आगे करके सरकार बना ली। जाहिर है, चुनावी चेहरा पार्टियों के लिए ताकत ही साबित होते रहा है। 

महागठबंधन का चेहरा बने तेजस्‍वी
खासकर बिहार में पिछले तीन दशक से प्रत्येक दल किसी न किसी नाम को आगे करके ही चुनाव लड़ते रहा है। यहां प्राय: सभी प्रमुख दलों के अपने-अपने चेहरे हैं। लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद राष्‍ट्रीय जनता दल (राजद) में उनके बेटे व पूर्व उपमुख्‍यमंत्री तेजस्‍वी यादव का कद बढ़ा है। वे राजद के साथ विपक्षी महागठबंधन के भी निर्विवाद चेहरा बनकर उभरे हैं। बिहार में कांग्रेस के पास कोई चेहरा नहीं होने का सीधा लाभ तेजस्‍वी को मिलता दिख रहा है।

जदयू के निर्विवाद चेहरा नीतीश कुमार
महागठबंधन में चेहरे को लेकर किचकिच नहीं,  दिख रही, लेकिन राजग के घटक दलों के अलग-अलग नेताओं की महत्‍वाकांक्षाएं आड़े आती दिख रही हैं। मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार सत्‍ताधारी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के निर्विवाद चेहरा हैं। भाजपा भी उनके नाम पर सहमत होती दिख रही है।

मुसीबत बनी कुशवाहा की नाराजगी
लेकिन, राजग के घटक दल लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) एवं राष्‍ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) भी हैं। लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान तथा रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा की एक बड़ी जमात में गहरी पकड़ और अलग छवि है। खासकर उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश कुमार का नेतृत्‍व गवारा नहीं है। अंदरखाने से छनकर आ रही जानकारी पर विश्‍वास करें तो राजद में नीतीश के नाम पर बनती सहमति से वे असहज हैं।

कांग्रेस के पास चेहरे की कमी
जिन दलों के पास चेहरा नहीं है, उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इस कड़ी में कांग्रेस का नाम सबसे आगे है। 

आजादी के तुरंत बाद से ही चेहरा राजनीति का प्रमुख मोहरा बन गया था। तब कांग्रेस का एकमात्र चेहरा प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह हुआ करते थे। आजादी के पहले से ही कांग्रेस बिहार में उनके नाम को आगे करके राजनीति कर रही थी। आजादी से पहले श्रीकृष्‍ण सिंह अंतरिम सरकार में बिहार के प्रधानमंत्री थे। आजादी के बाद 1967 तक लगातार 15 साल मुख्यमंत्री रहे।

राजनारायण विचार मंच के अध्यक्ष बालमुकुंद शर्मा के मुताबिक श्रीबाबू के निधन के बाद कांग्र्रेस को बिहार में कोई दूसरा सर्वमान्य चेहरा नहीं मिला, जिसके कारण पार्टी की स्थिति साल दर साल कमजोर होती चली गई। इस दौरान थोड़े-थोड़े अंतराल पर कांग्रेस के कई चेहरों को आजमा लिया गया, किंतु किसी की वैसी हनक नहीं दिखी।

नीतीश-लालू के चेहरे का प्रभुत्‍व
बिहार की सत्ता में कांग्रेस के हाशिये पर चले जाने के बाद पिछले तीन दशकों से प्रदेश की राजनीति चेहरे की धुरी पर ही चक्कर लगाती आ रही है। पहले लालू प्रसाद और अब नीतीश कुमार ने सियासत में चेहरे का प्रभुत्व स्थापित किया है। कमोबेश दोनों नेताओं का जादू आज भी बरकरार है। किंतु स्थापित चेहरों से आगे निकलने के लिए होड़ भी कम नहीं। पिछले कुछ दिनों की कवायद में कई चेहरों ने चर्चा में दखल दिया है, लेकिन स्थापित नेताओं के कैनवास से बाहर निकलना फिलहाल आसान नहीं दिखता।

लालू ने बदला चेहरे का मुहावरा
बिहार में कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्रा को सत्ता से बेदखल करके 10 मार्च 1990 को लालू प्रसाद ने सत्ता संभाली। लालू की शुरुआत निर्विवाद थी। वे अलग स्टाइल में पेश आते। खास शैली में बातें करते। ग्रामीणों को अपना होने का अहसास कराते। ठेठ अंदाज और आम-अवाम में संवाद के सहज संप्रेषण के चलते उन्होंने अपने चेहरे के लिए अलग आईने का निर्माण किया। हालांकि, लालू बहुत दिनों तक इसे कायम नहीं रख सके।

मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने सरकार और सत्ता के अभिजात चेहरे को पलटने का सिलसिला शुरू कर दिया था। मंडल कमीशन की सिफारिशों के बाद लालू के चेहरे की चमक जातीय पहचान में तब्दील हो गई। लालू की लोकप्रियता का आधार जातीय राजनीति हो गया।

वर्ष 1990 से 2005 तक लालू एवं राबड़ी देवी की सरकार ने नए राजनीतिक मुहावरे के साथ सामाजिक समीकरण भी बदल डाले। एक जैसे फॉर्मूले पर करीब डेढ़ दशक तक लालू की राजनीति चलती रही, जिसका अंत नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद हुआ।

नीतीश ने गढ़े सुशासन के प्रतिमान
नीतीश कुमार ने लालू से अलग स्टाइल की राजनीति को तरजीह दी। उन्होंने खुद को किसी खास जाति या समुदाय के दायरे में नहीं बांधा, बल्कि सबके लिए खुला रखा। नीतीश का चेहरा ही सियासत की पूंजी है। जाति की राजनीति से वे परहेज करते रहे हैं।

कभी लालू के साथ चलने वाले नीतीश ने जब सामाजिक न्याय की अवधारणा को बेपटरी होते देखा तो 1995 में अपनी राह अलग कर ली। जॉर्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर उन्होंने समता पार्टी बनाई और नैतिकता की राजनीति शुरू की। हालांकि, शुरुआत में उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। 1995 के विधानसभा चुनाव में उन्‍हें केवल सात सीटों से ही संतोष करना पड़ा।

वर्ष 2000 और 2005 के विधानसभा चुनाव परिणाम से साफ हो गया कि लालू के चेहरे का आकर्षण खत्म होने लगा है। इसी दौरान समता पार्टी का जदयू में विलय कर नीतीश ने विकास और सुशासन के फॉर्मूले को आगे बढ़ाया। इसी आधार पर जदयू-भाजपा गठबंधन ने दोनों दलों के आधार को विस्तार दिया। 2005 के विधानसभा चुनाव में नीतीश के चेहरे ने राजद को सत्ता से बाहर कर दिया।

जदयू प्रवक्ता नीरज कुमार के मुताबिक नीतीश ने आधी आबादी के लिए पंचायती राज व्यवस्था और राज्य सरकार की नौकरियों में 35 फीसद आरक्षण देकर बराबरी के अधिकार और संपूर्ण विकास के रास्ते खोले। नीतीश सरकार के शराबबंदी, दहेज प्रथा एवं बाल विवाह विरोधी कानून को सबको खुशहाल करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

कर्पूरी मतलब बदलाव के नायक
श्रीकृष्ण सिंह के बाद बिहार में कर्पूरी ठाकुर की राजनीति शुरू हुई। बेहद लोकप्रिय और बेदाग छवि के कर्पूरी की ईमानदारी की आज भी दुहाई दी जाती है। आजादी से पहले दो और बाद में 18 बार जेल गए कर्पूरी का चेहरा शुद्ध सियासी था, जिसे धन-संपत्ति से मतलब नहीं था।

दो बार मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी को जननायक की उपाधि ऐसे ही नहीं मिल गई। वे देश के सबसे प्रभावशाली समाजवादी नेताओं में से एक थे। वे 1952 से 17 फरवरी 1988 तक आजीवन किसी न किसी सदन के सदस्य रहे। 1977 में वे लोकसभा के लिए चुने गए। 1970 के दिसंबर से 1971 के जून तक और फिर जून 1977 से अप्रैल 1979 तक मुख्‍यमंत्री रहे।

कर्पूरी ने आरक्षण, भाषा एवं रोजगार से संबंधित कई अहम नीतियां लागू कीं। मैट्रिक परीक्षा में अंग्रेजी विषय की अनिवार्यता खत्म कर दी। पहली पारी में सरकारी ठेकों में बेरोजगार इंजीनियरों को तरजीह देने का निर्णय लिया। दूसरी पारी में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में अन्‍य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के लिए आरक्षण लागू करके सियासत का चेहरा और भूगोल बदल डाला। उनका जातीय आधार कमजोर था, किंतु ईमानदार, स्वच्छ और निर्दोष चेहरे का ग्राफ सबसे ऊपर था। वे सत्ता पक्ष में रहें या विपक्ष में, बिहार की सियासत दो दशक तक सिर्फ उनके नाम पर चली।

आगामी लोकसभा चुनाव में भी कायम रहेगी परंपरा
स्‍पष्‍ट है,  श्रीकृष्‍ण सिंह के जमाने से चली आ रही चेहरे की राजनीति की परंपरा आगामी संसदीय चुनाव में भी कायम रहनी तय है। चुनाव के साल भर पहले से ही यहां चुनावी चेहरे के लिए किचकिच शुरू है। महागठबंधन में नेतृत्व को लेकर कोई विवाद नहीं, लेकिन चेहरों की अधिकता के कारण राजग के घटक दलों में उलझन है।

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