भगवान श्री विश्वकर्मा एवं उनकी पूजा का महत्व

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प्रस्तुतिः upkiran.org

पूरे भारतवर्ष तथा विश्व के कुछ अन्य देशों में शिल्प देव के रूप में भगवान विश्वकर्मा की पूजा की जाती है। उक्त पूजा मुख्यतः विश्वकर्मा वंशज, उद्योगपति, भवन निर्माता, कारीगर तथा शिल्प कार्य में कार्यरत लोग करते है लेकिन अधिकांश लोगो को भगवान विश्वकर्मा के बारे में समुचित प्रमाणित जानकारी नहीं है। भारत में सबसे अधिक 17 सितम्बर को भगवान विश्वकर्मा पूजा प्रचलित है।

आश्विन मास के कृष्णपक्ष की कन्या संक्रान्ति को जो सामान्यतः 17 सितम्बर को ही पड़ती है तथा जब सूर्य, सिंह राशि से कन्या राशि में प्रवेश करता है, इस संक्रमण दिवस पर भगवान विश्वकर्मा की पूजा की जाती है। इस तिथि को विश्वकर्मा पूजा के शास्त्रीय प्रमाण भी है। भागवत महापुराण के 12वें स्कन्द अध्याय 11 में भी इसका वर्णन है तथा महाभारत में विशेष रूप से इसका वर्णन किया गया है। यह वर्षा ऋतु के अन्त में होती है जो सूर्य संम्वत कलेन्डर के अनुसार भाद्रपद मास में पड़ती है, जिस वर्ष फरवरी 29 दिन की होती है, उस वर्ष कन्या संक्रान्ति 16 सितम्बर को अन्यथा प्रतिवर्ष 17 सितम्बर को पड़ती है।

वास्तु ग्रन्थों के आधार पर वास्तु पुरूष का जन्म भाद्रपद में मनाया जाता है, वास्तुशास्त्र शिल्प शास्त्र के अन्तर्गत आता है और शिल्प शास्त्र के निर्माता भगवान विश्वकर्मा है। धार्मिक ग्रन्थों में उल्लेखित है कि भगवान विश्वकर्मा ने सारे विश्व को ज्ञान-विज्ञान कला कौशल का चमत्कार तथा सभ्यता का बोध कराया है तथा ब्रहमा जी द्वारा सृष्टि रचना के उपरान्त विश्वकर्मा जी ने ही मानव को सभ्य बनाने के लिए शिल्प विद्या प्रदान की अतः 17 सितम्बर को कुछ लोग सृष्टि रचना दिवस भी मानते है। सोवियत संघ जो वर्तमान में रूस है द्वारा अणु-परमाणु शक्तिशाली बमों एवम् शोध करके अपने वैज्ञानिकों के सफल परिक्षण के पश्चात उनके वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में विचार आया कि यह तकनीकी विद्या किस वैज्ञानिक ने विश्व को दी है।

भारतीय संस्कृति/सनातन धर्म के अध्ययन के पश्चात उन्हें ज्ञात हुआ कि भगवान विश्वकर्मा तकनीकी शिक्षा के सम्राट गुरू है, इसलिए वहाँ भी 17 सितम्बर को भगवान विश्वकर्मा की पूजा प्रचलित की गई तथा यूरोप के कई अन्य देशों में भी यह मनाया जाता है। भारत वर्ष में प्राचीन काल से बंगाल, उडीसा, त्रिपुरा तथा पूर्वोत्तर भारत में यह पूजन प्रचलित है। अंग्रेज सर्वप्रथम कलकत्ता में आये थे, अतः उन्होंने वहाँ से उक्त पूजा को प्रारम्भ कराया जो समय-समय पूरे भारत वर्ष में तेजी से फैली तथा आज 17 सितम्बर को तकनीकी व्यवसाय के लोग धूमधाम से भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते है, शोभा यात्रा तथा झांकियाँ आदि भी निकाली जाती है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों, वेदों, उपनिष्दों तथा पुराणों में भगवान विश्वकर्मा की महत्ता का वर्णन किया गया है, ब्रहमा जी, विष्णु जी, महेश जी (त्रिदेव) भगवान राम, भगवान श्री कृष्ण, इन्द्र, सूर्य तथा अनेक देवी-देवताओं द्वारा उनकी पूजा अर्चना की गई है, भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताये गये हैं-

1. विराट विश्वकर्मा – सृष्टि के रचियता2. धर्मवश्ंाी विश्वकर्मा – महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभास पुत्र3. अंगिरावंशी विश्वकर्मा – आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र4. सुन्धवा विश्वकर्मा – महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋषि अथवी के पुत्र 5. भृगुवंशी विश्वकर्मा – उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (सूक्राचार्य के पौत्र)

कुछ विद्वान भगवान विश्वकर्मा जी के 15 रूप भी बताते हैं, प्रमाणित जानकारी के अनुसार शिल्पदेव भगवान विश्वकर्मा का प्रकाटय सृष्टि आरम्भ दिवस अर्थात मानव सृष्टि के सृजन के प्रथम दिन हुआ है तथा यह तिथि माघ शुक्ल त्रियोदशी है इसे वर्तमान में विश्वकर्मा जयन्ती के रूप में भी जाना जाता है। विश्वकर्मा महापुराण में भगवान विश्वकर्मा के विषय में 51 अध्यायों में विस्तृत विवरण है, सभी हिन्दु सनातन धर्मावलम्बियों को इसका अध्ययन करना चाहिए।

नारायण की कृपा से जब ब्रहमा जी ने पृथ्वी का निर्माण कर लिया तो उन्हें इसके स्थिर करने की चिन्ता हुई इसके लिए उन्होंने विश्वकर्मा जी की स्तृति की तथा विश्वकर्मा जी ने प्रकट होकर मेरू पर्वत द्वारा डगमगाती पृथ्वी को स्थिर किया। इसके पश्चात विश्वकर्मा भगवान द्वारा विभिन्न लोकों, स्वर्गपुरी आदि की रचना का कार्य प्रारम्भ किया तथा मानव सभ्यता के प्रथम सम्राट माने जाने वाले ध्रुव के वंशज राजा पृथु को भी इसकी जानकारी नहीं थी।

देवराज इन्द्र ने उन्हें अवगत कराया कि यह सब विश्वकर्मा भगवान के शिल्प कौशल की देन है। राजा पृथु ने विश्वकर्मा का आवहन किया तथा उनके आवाहन से प्रसन्न होकर प्रभु विश्वकर्मा ने अपने मुख से अपने पाँच पुत्रों को अवतरित कर उन्हें निर्देश दिया कि वे तथा मेरा मानस पुत्र वास्तु कुछ समय पृथ्वी पर निवास कर सृष्टि रचना में तुम्हारी सहायता करेंगे। भगवान विश्वकर्मा ने सर्वप्रथम ब्रहमलोक, विष्णुलोक तथा शिवलोक की रचना की, इसके पश्चात इन्द्र के लिए अमरावती की रचना की तथा अपने पुत्रों से कहकर सभी देवी देवताओं के लिए उनके पद की मर्यादा के अनुसार आवास तथा अस्त्र-शस्त्र का निर्माण किया।

यमपुरी, कुबेरपुरी, पांडवपुरी, सुदामापुरी, पुष्पक विमान, कर्ण का कुण्डल, भगवान विष्णु का सुदर्शनचक्र, शंकर भगवान का त्रिशूल, यमराज का कालदण्ड, इन्द्रप्रस्थ, द्वारिका आदि सभी भगवान विश्वकर्मा की कृतियाँ है। इसके अतिरिक्त देवराज इन्द्र को मुनि दधिची की हड्डियों से 1000 दांतो वाला वज्र बनाकर अभिमंत्रित कर इन्द्र को दिया। 

राजा पृथु के अनुरोध पर विश्वकर्मा पुत्रों ने उनके राज्य के लिए पृथ्वी के अन्दर से सोना, चाँदी, लोहा, ताम्बा आदि अन्य उपयोगी धातुऐं निकाली, इससे प्रसन्न होकर राजा पृथु ने शुभ मूहूर्त जब सूर्य उत्तरायण में था, भगवान विश्वकर्मा की पूजा कर अपनी कृतज्ञता प्रकट करने का निर्णय लिया तथा इसके लिए राज पुरोहित द्वारा उनके प्रकटीकरण की तिथि माघ शुक्ल त्रियोदशी सुझायी गई। राजा पृथु ने भगवान विश्वकर्मा जी पूजा कर उनका आर्शीवाद ग्रहण किया।

शिव अन्धक युद्ध में इन दोनों के पसीने से उत्पन्न विशालकाय पुरूष को भगवान विश्वकर्मा ने वास्तुदेव नाम देकर अपने पुत्र के रूप में स्वीकार किया तथा घोषणा की कि जबकि भी कोई नवनिर्माण होगा सर्वप्रथम वास्तुदेवता पूजन होगा तथा उनके पूजन के बिना किया गया नवनिर्माण कष्टदायक होगा।इलाचल की धर्मपत्नी ईलादेवी के अनुरोध पर उन्होंने अपने पुत्र वास्तुदेव से ईलाचल पर्वत पर अपने तथा ईलादेवी के निवास बनाने का निर्देश दिया तथा निर्माण के पश्चात वहाँ से प्रस्थान किया। वहाँ के भक्तों के अनुरोध पर भगवान विश्वकर्मा ने अपने पाँचों मुख से पाँच पुत्र उत्पन्न किये जिनके नाम मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी तथा देवज्ञ रखे, इन पाँचों पुत्रों को ब्राहमण वर्ण में रखकर शिल्प कला में पारंगत बनाया। भगवान विश्वकर्मा के पाँचों मुखों से उत्पन्न होने के कारण इन्हें पांचाल भी कहा जाता है। वर्तमान में यह लोग धीमान, जागिड़, पांचाल, तक्षशिला, कुकुहास, सुतार, विश्वब्राहमण, सूत्रधार आदि लगभग 32 नामों से जाने जाते है। भगवान विश्वकर्मा के पाँचों पुत्रों की शादी निम्नवत हुई है –

1. मनु – अंगीरा ऋषि की पुत्री (कांच)2. मय – पाराशर ऋषि की पत्नी (सुलोचना)3. त्वष्टा – कौशिक ऋषि की पुत्री (जयन्ती)4. शिल्पी – भृगु ऋषि की पुत्री (करूणा)5. देवज्ञ – जेमनी ऋषि की पुत्री (चन्द्रिका)

इन पाँचों पुत्रों के वंशज ही आगे चलकर विश्व ब्राहमण, आचार्य, पांचाल, रथपति, रथकार, तक्षज, अंगीरा जागिड़, कंशाली, नाराशस, अकसाल, धीमान, पांचाल तथा कमालियन आदि के नाम से प्रसिद्ध हुए तथा ब्राहमण कहलाये।विश्वकर्मा जी की पुत्री संज्ञा का विवाह महर्षि कश्यप के पुत्र सूर्य देव के साथ हुआ तथा दूसरी पुत्री का विवाह स्वायभु मनु के पुत्र प्रियावृत से हुआ उनके दामाद प्रियावृत ने सूर्य के रथ जैसा विशाल शक्तिशाली कांति युक्त रथ तैयार कराया, इस रथ के चलने से पृथ्वी पर सात स्थानों पर गहरे गडढ़े हो गये, जिनमें पानी भरने से वे महासागर बन गये, इन गडढ़ों के निकट जो मिट्टी जमा हुई व पर्वत कहलाये तथा शेष खाली स्थान महाद्वीन कहलाये। इस प्रकार सृष्टि में महाद्वीप, महासागर तथा पर्वतों का निर्माण हुआ। विश्वकर्मा पुराण में भगवान विश्वकर्मा के पुत्र त्वष्टा के पुत्र का नाम भी विश्वकर्मा बताया गया है कहा जाता है कि उसने काशी के बाहरी भाग में भगवान शंकर के लिंग की स्थापना कर उपासना की तथा सब प्रकार के निर्माण कलाओं को प्रसाद के रूप में प्राप्त किया।

जरासन्ध तथा कालयवन से यादवों की रक्षा के लिए समुन्द्र में दुर्ग जैसा नगर द्वारिका पुरी का निर्माण किया तथा इसकी संरचना इतनी अदभुत थी की श्री कृष्ण तथा बलराम भी इसका द्वार खोजने में विचलित हो गये। इसीलिए इसका नाम द्वारिकापुरी पड़ा यह स्वर्ण तथा विभिन्न धातुओं से निर्मित था तथा इसमें भगवान श्री कृष्ण की 16 हजार रानियों के लिए 16 हजार कक्ष तथा महल में रहने वाले अन्य सभी लोगों के लिए अलग-अलग निवास बनाये गये थे। भगवान विश्वकर्मा ने अपने दामाद सूर्य देव को दहेज में उपहार के रूप में 12 दिव्यरथ दिए थे इन सभी का उनका पुत्र वास्तु सारथी था।

आठों लोकपालों (इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरूण, वायु, कुबेर तथा ईशान) के लिए भी उनके द्वारा आवास बनाये गये थे।विश्वकर्मा महापुराण में शिल्पी प्रतिष्ठा अध्याय के अनुसार शिल्पियों की पूजा उसी प्रकार शास्त्रों के अनुकूल है जिस प्रकार ब्राहमणों की पूजा। जिस प्रकार आदि विराट नारायण के मुख से 5 ब्राहमणों की उत्पत्ति हुई है उसी प्रकार 5 विभिन्न शिल्प कर्म करने वाले 5 शिल्पियों की उत्पत्ति भी उनके मुख से हुई हैं। इन पाँचों शिल्पियों को शास्त्रों में विश्व ब्राहमण की संज्ञा देकर ब्राहमणों के समकक्ष माना है तथा इन्हें यज्ञोपवित आदि समस्त धार्मिक संस्कारों एवम् वेद आदि के पठन पाठन का अधिकार दिया गया है। इसीलिए नवनिर्माण जीर्णोद्धार आदि कार्यो में वास्तु देव के साथ-साथ शिल्पी पूजन तथा शिल्पी प्रतिष्ठा आवश्यक है।

विश्व ब्राहमण की पूजा ना करना ब्रहमद्रोह होता है, इस संबंध में कथा है कि अवन्तीनगर में हर्यश्व नाम के कर्म काण्डी ब्राहमण द्वारा शिल्पियों का अपमान करने पर वह रक्तपित रोग से पीड़ित हो गया, जिसे चयवन ऋषि द्वारा ईलाचल पर्वत पर भगवान विश्वकर्मा के अष्ठाक्षर मंत्र का पूरी निष्ठा के साथ जाप करने का निर्देश दिया गया तथा 9 दिन में इसके जाप से वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। तब प्रभु विश्वकर्मा ने उसे समझाया कि संसार के कल्याण के लिए मैंने अपने पांचों पुत्रों को नियुक्त किया है, जो मेरा ही स्वरूप है। अतः उनका समुचित आदर सत्कार करना चाहिए तथा प्रत्येक शुभ कार्य में उनका पूजन तथा सम्मान करना चाहिए। भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा 17 सितम्बर आश्विन मास कृष्णपक्ष की कन्या संक्रान्ति 17 सितम्बर के अतिरिक्त शास्त्रीय प्रमाण के अनुसार प्रर्वणी के दिन माघ शुक्ल त्रियोदशी (प्रकाटय दिवस), प्रत्येक अमावश्या, बसंतपंचमी, श्रावणशुदीपूर्णिमा, प्रत्येक मास की दो पंचमी, दोनों त्रियोदशी को की जाती है। इसमें माघ शुक्ल त्रियोदशी को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, इसके पश्चात अमावशया की पूजा फलदायी है। लेकिन चन्द्रक्षय की अमावशया को उनकी पूजा छोड़ देनी चाहिए। भगवान विश्वकर्मा की शिल्पी के रूप में पूजा अधिक फलीभूत होती है। उनकी पूजा उनके पांचों पुत्रों तथा उनके वाहन हँस के साथ की जानी चाहिए, ऐसी धारणा है कि भगवान विश्वकर्मा ही एकमात्र ऐसे देव है कि जिनकी पूजा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। चारों वेदों में भगवान विश्वकर्मा की महिमा का वर्णन है लेकिन अर्थववेद को शिल्प वेद भी माना जाता है। स्कन्द पुराण, मतस्यपुराण तथा महाभारत आदि ग्रन्थों में भी भगवान विश्वकर्मा तथा उनके वंशजों का वर्णन मिलता है। अतः सभी सनातन धर्मावलम्बियों को श्रद्धाभाव के साथ उपरोक्त बतायी गई विधि से भगवान विश्वकर्मा की पूजा करनी चाहिए तथा समय-समय पर विश्वकर्मा महापुराण का श्रवण एवम् पठन-पाठन करना चाहिए।  

संग्रहकर्ता – आदित्य कुमार धीमान, गाजियाबाद।(वेदों, पुराणों, उपनिषदों तथा भगवान विश्वकर्मा महापुराण से संकलित)
वेदों में भगवान विश्वकर्मा जी की महिमा ऋग्वेद में भगवान विश्वकर्मा

1. ओं रथं ये चक्रः सुर्वत्तं सुचेतऽविहवरन्तं मनस्परि ध्यया।तां अन्वऽस्य सवनस्य आवोवाजा ऋभवो वेदयामसि।। (ऋग्वेद अ.4सू. 35/मं.-2)भावार्थ – हे! शिल्पकला में निपुण बुद्धिमान विश्वकर्मा वंशियों, आप शिल्प और विज्ञान के द्वारा उत्तम शिल्प विद्या को ग्रहण कीजिए।
2. ओं ये धीमानों रथकाराः कर्मारा ये मनीषिणः।उषस्तीन पर्ण महयं त्वं सर्वान् कृष्वभि तो जनान्।। (ऋग्वेद)भावार्थ – महाराज ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहते है कि हे ईश्वर! जो बुद्धिमान रथकार और लोह कार्य में निपुण है, उन सबको हमारे निकट बैठाने की कृपा करें। ये विशिष्ट बुद्धियुक्त है। जैसे दांतों वाले हाथी को दन्ती कहा जाता है। उसी प्रकार विशेष मेघां बुद्धि वाले शिल्पकारों को धीमान या विश्वकर्मा कहा जाता है। 
3. विश्वकर्मा ह्यजनिष्ट देव आदिद्रगन्धर्वोऽभवद् द्वितीयः।तृतीयः पिता जनितौषधीनामपां गर्भ व्यदधात् पुरूत्रा।। (ऋग्वेद – मण्डल 10 सुक्तव्यासी)

यजुर्वेद में भगवान विश्वकर्मा

1. ओं विश्वकर्मन् हविषा वर्घनेन… यजु.अ.4/मं. 11भावार्थ – हे विश्वकर्मा! आप अस्त्र-शस्त्र के निर्माता तथा विज्ञानवेता हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा देने वाले आप राजा तथा प्रजा को उत्तम शिक्षा देने वाले होंवें, जिससे संसार का कल्याण हो।
2. ओं अग्ने अंगिर शतंते …….. यजु. अ.12/मं. 8भावार्थ – हे शिल्प और पदार्थ विद्या को जानने वाले महर्षि अंगिरा आप हजारों प्रकार की प्रवृत्ति से विद्याओं का प्रकाश कर सब प्राणियों के लिये लक्ष्मी और सुख प्रदान करायें।

सामवेद में भगवान विश्वकर्मा

1. ओं स पूव्र्यो महीनां वेनः क्रतुभि रानजे …. साम.अ.4/मंत्र 4
भावार्थ – ज्ञान कर्म द्वारा सर्व सिद्ध करने वाले पूज्य मनु महाराज सब उत्तम कार्य मानव कल्याण हित करते हैं। उत्तम कर्मो द्वारा ही सर्वज्ञ परमात्मा की प्राप्ति होती है।
2. ओं पुमानः सोम जागृविख्या ….. साम.अ.3/मंत्र 9
भावार्थ – हे बुद्धिमानों में बुद्धिमान अंगिरा! तुम सबसे बढ़कर ज्ञानी हो, आप पवित्र हैं और वरण योग्य है। आप शान्त रस युक्त हो, सुखद ज्ञान हमें प्रदान कराइये, जिससे सुख की प्राप्ति हो।

अथर्ववेद में भगवान विश्वकर्मा

1. ओं ये धीमानो रथकाराः कर्मारा ये मनीषिणः …….. अर्थर्वद काण्ड 3/4/6
भावार्थ – सब मनुष्यों और विशेषकर राजा लोगों को चाहिये कि भूमिरथ, आकाशरथ, जलरथ आदि के बना वाले और अन्य शिल्पकर्मी विश्वकर्मा चतुर विद्वानों (धीमानों) का सत्कार करते रहें, जिससे अनेक व्यापारों से संसार उन्नति होवे।
2. ओं यस्यां वेदिं परिगृहणन्ति भूम्यां दस्यां यज्ञं …….. अर्थवेद काण्ड 12/सूक्त 9/मंत्र 16

भावार्थ – जिस भूमि पर सर्वप्रथम विश्वकर्मा ने यज्ञवेदी रचकर यज्ञ रचाया और वेदों का प्रचार किया तथा जिस भूमि पर ऊंचे स्तम्भ बनाये, वह बढ़ती हुई भूमि हमें बढ़ाती रहे तथा अन्न धन प्रदान करती रहे।

विश्वकर्मा जी का स्वरूप

पदम पुराण के भूखण्ड में शिव-पार्वती संवाद में महादेव जी पार्वती जी से कहते हैं कि- चिन्तयोद्विश्वं कर्माणं शिवे वट तरोरघः,दिव्य सिंहासन सीनं मुनिवृन्द निषेवितम्।उपास्यसानभमैरः स्तूय माना नहर्षिभिः,पंचवक्त्रं दश भुजं ब्रहाचारि व्रते स्थितम्।।लक्ष्मी सरस्वतीभयांच संक्षालित पद द्वयम्वक्षस्थले व विभ्राण ब्रहाविद्यामुपातनुम्हार केयूर कंटकं कुन्डलाद्यैः सुशोभितम्,भस्माडंग राग्र दैवेंश वरदं सुस्मिताननम्।।कुछालं करणीवास्य माम यंत्रं कमंढलुम,विभ्राण दक्षणै हस्तैरवरोह क्रमाठाभुम।मेरूं टंकं त्वनं भूषां वन्हिच दधतः करै,अवरोह क्रमेर्णव वामेर्वाव विलोचने।एवं ध्यायेन्यहा देवि विश्व कर्माण मध्ययम्।।(पद्य पुराणे! भूखडे। शिव पार्वतिं संवादे)
विश्वकर्मा जी उच्च कोटि के ऋषि, वैज्ञानिक, देवताओं के गुरू एवं पुरोहित ही नहीं बल्कि प्रजापति भी हैं। ऋभवश्चापि देवानां रथकाराः भवन्ति हिते सर्वे शिल्पिनः पुत्राः विश्वकर्म प्रजापतेः।।

सप्तऋषियों द्वारा विश्वकर्मा जी की पूजाशिल्पाचायर्याय देवाय नमस्ते विश्वकर्मणे।मनवे मयाय त्वष्ट्रो च शिल्पिन् दैंवज्ञ ते नमः,भक्ति तो विश्वकर्माणस्तुति यद्वावय मब्रतीत।

शिल्पी ब्राहमणों की समाज में प्रतिष्ठाशिल्पी ब्राहमणों का महत्वविश्वकर्मा कुल श्रेष्ठो धर्मज्ञो वेद पारगः।सामुद्र गणितानां च ज्योतिः शास्त्रस्त्र चैबहि।।लोह पाषाण काष्ठानां इष्टकानां च संकले।सूत्र प्रास्त्र क्रिया प्राज्ञो वास्तुविद्यादि पारगः।।सुधानां चित्रकानां च विद्या चोषिठि ममगः।वेदकर्मा सादचारः गुणवान सत्य वाचकः।।(शिल्प शास्त्र)

भावार्थ – विश्वकर्मा वंश श्रेष्ठ हैं विश्वकर्मा वंशी धर्मज्ञ है, उन्हें वेदों का ज्ञान है। सामुद्र शास्त्र, गणित शास्त्र, ज्योतिष और भूगोल एवं खगोल शास्त्र में ये पारंगत है। एक शिल्पी लोह, पत्थर, काष्ठ, चान्दी, स्वर्ण आदि धातुओं से चित्र विचित्र वस्तुओं की रचना करता है। वैदिक कर्मो में उन की आस्था है, सदाचार और सत्यभाषण उस की विशेषता है। इसीलिए आगे चलकर एक और स्थान पर शिल्प शास्त्र में कहा है कि:-
विश्वकर्मा कलेलाता गर्भ ब्राहमण निश्चिताः।शूद्रत्वं नास्ति तद्वंशे ब्राहमण विश्वकर्मणः।।(शिल्पशास्त्रे)
भावार्थ – जो व्यक्ति विश्वकर्मा वंश में जन्म लेता है वह जन्म से ही ब्राहमण होता है, क्योंकि विश्वकर्मा वंश में कोई भी शूद्र या, गुणहीन उत्पन्न नहीं होता। ‘शिल्प शास्त्र’ में आगे कहा है कि शिल्पी ब्राहमण अग्र पूज्य है।

शूद्र कोटि सहस्त्रणामेक विप्रः प्रतिष्ठितः।विप्रकोटि सहस्त्राणामेक शिल्पी प्रतिष्ठितः।।शिल्पी नमस्कृत्य पूर्व देवरूप धरो गत।पश्चादन्य विप्रो राजा वैश्य शूद्रो इतिक्रमात।।(शिल्पशास्त्रे)
भावार्थ – सहस्त्रो शूद्रो में एक ब्राहमण पूज्य है और सहस्त्र ब्राहमणों में एक शिल्पी ब्राहमण ही पूजा के योग्य है। और जहाँ एक साथ चारो वर्णों के लोग उपस्थित हो वहाँ पर सब से पहले शिल्पी ब्राहमण को प्रणाम करना चाहिए तत्पश्चात अन्य वर्णों के व्यक्तियों का यथोचित सत्कार करना चाहिए।

भगवान विश्वकर्मा की पूजा मंत्रकंवा सूत्रांवु पांत्र वहाति करतले पुस्तक ज्ञान सूत्रं।हंसारूढ़ स्त्रिनेत्रः शुभमुकुट शिराः सर्वतो बुद्धकाय।त्रैलोक्य येन सृष्टि सकलसुर गृहं राजहर्यादि हभ्र्य।देवो सौ सूत्रधारः जगर विलहितः ध्यायते सर्वसत्वै।

भावार्थ – जिन्होंने अपने एक हाथ में कोड़ा धारण किया है, दूसरे में सूत्र, तीसरे में जल का कमण्डल तथा चैथे हाथ में समस्त ज्ञान सूत्रों के भण्डार समान पुस्तक को धारण किया है जो हंस के ऊपर विराजमान है तथा तीन नेत्रों से युक्त हैं तथा जिनके मस्तक के ऊपर मुकुट शोभा पा रहा है। ऐसे देव कि जिन्होंने तीनो लोकों का सर्जन किया है सब देवदाताओं, राजाओं, प्रजाजनों के निवास स्थलों का निर्माण किया है, सारे जगत के सूत्रधार तथा जगत का कल्याण करने वाले प्रभु का सभी प्राणी अति प्रेमपूर्वक ध्यान करें। 

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