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Up Kiran, Digital Desk: देश की न्यायिक व्यवस्था एक बार फिर सवालों के घेरे में आ गई है। दिल्ली हाई कोर्ट से इलाहाबाद हाई कोर्ट में ट्रांसफर किए गए जस्टिस यशवंत वर्मा का मामला इन दिनों न सिर्फ कोर्ट के गलियारों, बल्कि संसद से लेकर सड़कों तक चर्चा का केंद्र बना हुआ है। मार्च 2025 में उनके सरकारी आवास में आग लगने के बाद वहां कथित तौर पर मिली बड़ी मात्रा में नकदी ने जनता में गहरा आक्रोश पैदा किया है। अब यह मामला एक गंभीर मोड़ पर है, क्योंकि संसद के मानसून सत्र में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारियां जोरों पर हैं।

जनता में बढ़ती नाराजगी, बार एसोसिएशन का हल्ला बोल

इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने इस पूरे मामले में स्पष्ट और आक्रामक रुख अपनाया है। बार के सदस्यों का कहना है कि यह सिर्फ एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरी न्यायपालिका की साख पर सवाल है। 25 मार्च से शुरू हुई हड़ताल के चलते कोर्ट का कामकाज ठप पड़ा है, जिससे आम जनता को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। वकीलों की मांग है कि जस्टिस वर्मा पर लगे आरोपों की निष्पक्ष जांच हो और दोष सिद्ध होने पर सख्त कार्रवाई की जाए।

अखिलेश यादव की चुप्पी: नीयत पर सवाल या रणनीति?

इस पूरे विवाद में समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव की चुप्पी ने एक अलग बहस छेड़ दी है। 200 से अधिक सांसदों द्वारा हस्ताक्षर किए गए महाभियोग प्रस्ताव पर उन्होंने दस्तखत नहीं किए, जिससे राजनीतिक गलियारों में कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। कहा जा रहा है कि जस्टिस वर्मा और सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के बीच पूर्व में रहे करीबी संबंध ही अखिलेश की निष्क्रियता का कारण हो सकते हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अखिलेश न्यायिक मामलों से दूरी बनाकर चलने की रणनीति अपना रहे हैं। 2019 में जब मुलायम सिंह के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई बंद की थी, तब भी उन्होंने कोई आपत्ति नहीं जताई थी। जस्टिस वर्मा के मामले में भी वे शायद सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जांच समिति की रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं।

नकदी कांड ने खोले कई मोर्चे

14 मार्च 2025 को दिल्ली स्थित सरकारी आवास में लगी आग ने जिस तरह से घटनाक्रम को बदला, वह हैरान करने वाला था। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, आग बुझाने के बाद वहां से जले हुए नोटों की गड्डियां और भारी नकदी बरामद हुई। इस खुलासे ने आम नागरिकों का न्यायपालिका से भरोसा डगमगा दिया है। हालांकि जस्टिस वर्मा ने इन आरोपों को साजिश बताया और कहा कि आग मुख्य आवास में नहीं, स्टोर रूम में लगी थी।

सुप्रीम कोर्ट का रुख और कॉलेजियम की भूमिका

इस विवाद के बीच सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद हाई कोर्ट भेजने की सिफारिश की, लेकिन साथ ही स्पष्ट निर्देश दिया कि उन्हें कोई न्यायिक कार्य न सौंपा जाए। यह फैसला भी कोर्ट के इतिहास में असाधारण माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने यह निर्णय 28 मार्च को लिया, जिसे केंद्र सरकार ने तुरंत मान लिया। हालांकि, इलाहाबाद बार एसोसिएशन ने इस कदम को “न्यायपालिका के लिए अपमानजनक” बताते हुए विरोध प्रदर्शन तेज कर दिए हैं।

महाभियोग प्रस्ताव की तैयारी और सियासी जोड़तोड़

इस समय केंद्र सरकार ने मानसून सत्र में जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने का संकेत दिया है। कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने इसकी पुष्टि की है। विपक्ष और सत्ता पक्ष, दोनों के सांसदों ने मिलकर 200 से अधिक हस्ताक्षर किए हैं, जो एक असामान्य राजनीतिक एकजुटता का संकेत है। इस प्रस्ताव के पीछे बढ़ते जनदबाव और बार एसोसिएशन की लगातार मांगों का भी अहम योगदान माना जा रहा है।

जांच समिति और जस्टिस वर्मा का जवाब

सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तीन सदस्यीय जांच समिति — जिसमें पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस शील नागू, हिमाचल के चीफ जस्टिस जी.एस. संधावालिया और कर्नाटक हाई कोर्ट की जस्टिस अनु शिवरामन शामिल हैं — ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी है। रिपोर्ट के बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने जस्टिस वर्मा को स्वेच्छा से इस्तीफा देने का सुझाव दिया था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।

वहीं जस्टिस वर्मा ने खुद को निर्दोष बताया है और जांच में पूरा सहयोग देने की बात कही है। उन्होंने दावा किया कि कोई नकदी नहीं मिली और यह पूरा मामला उन्हें फंसाने की साजिश है। बार एसोसिएशन ने उनकी सफाई को खारिज कर दिया और जांच को पारदर्शी न बताते हुए अस्वीकार्य कहा है।

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