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Up Kiran, Digital Desk: यह मामला किसी कानूनी पहेली से कम नहीं है. एक शख्स जो जेल में बंद है, लेकिन देश की जनता ने उसे अपना सांसद चुना है. अब उसे संसद में शपथ लेने के लिए दिल्ली आना है, लेकिन सवाल यह है कि उसके आने-जाने का खर्च कौन उठाएगा? इसी अजीबोगरीब मामले पर दिल्ली हाईकोर्ट के दो जज भी एकमत नहीं हो पाए और एक 'बंटा हुआ फैसला' (Split Verdict) सुनाया.

यह मामला है जम्मू-कश्मीर की बारामूला सीट से नवनिर्वाचित सांसद शेख अब्दुल राशिद का, जिन्हें 'इंजीनियर' राशिद के नाम से भी जाना जाता है. राशिद इस वक्त टेरर फंडिंग के आरोप में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं.

क्या है पूरा मामला?

इंजीनियर राशिद ने सांसद के तौर पर शपथ लेने के लिए अंतरिम जमानत या कस्टडी पैरोल की मांग करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी. निचली अदालत ने उन्हें शपथ लेने की इजाजत तो दे दी थी, लेकिन एक शर्त रख दी थी कि उन्हें तिहाड़ जेल से संसद तक लाने और वापस ले जाने का सारा खर्च खुद उठाना होगा.

राशिद ने निचली अदालत के इसी फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी. उनका कहना था कि जब वह कानूनी हिरासत में हैं, तो उनके आने-जाने की व्यवस्था करना और उसका खर्च उठाना राज्य (यानी सरकार) की जिम्मेदारी है.

हाईकोर्ट के दो जजों की अलग-अलग राय

यह मामला जस्टिस आनंद वेंकटेश और जस्टिस रमेश कुमार की बेंच के सामने आया. दोनों ही जजों ने इस पर अपनी अलग-अलग राय रखी, जिससे फैसला उलझ गया.

अब आगे क्या होगा?

जब भी किसी मामले में दो जजों की बेंच एकमत नहीं हो पाती और 'बंटा हुआ फैसला' आता है, तो उस मामले को एक बड़ी बेंच के पास भेजा जाता है. अब इस मामले को दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के पास भेजा जाएगा, जो इसे किसी तीसरे जज या एक बड़ी बेंच को सौंपेंगे. अब वही बेंच इस पर अंतिम फैसला सुनाएगी कि इंजीनियर राशिद के दिल्ली आने का खर्च कौन उठाएगा - वह खुद या सरकार.

यह मामला सिर्फ एक सांसद के खर्चे का नहीं है, बल्कि यह कानून, लोकतंत्र और एक विचाराधीन कैदी के अधिकारों के बीच संतुलन का एक बड़ा सवाल भी है.