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भारत और पाकिस्तान के बीच 1947 में हुआ विभाजन आज भी इतिहासकारों, विचारकों और आम लोगों के लिए एक सवाल बना हुआ है। क्या वास्तव में इस विभाजन की जरूरत थी, जब दोनों देशों की संस्कृति, भाषा और परंपराएं इतनी हद तक समान थीं? इस सवाल को गहराई से समझने के लिए डॉ. भीमराव आंबेडकर की पुस्तक ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ आज भी प्रासंगिक बनी हुई है।

बाबा साहब आंबेडकर ने इस मुद्दे पर न केवल तर्कसंगत विश्लेषण प्रस्तुत किया, बल्कि उन सांप्रदायिक ताकतों पर भी सवाल उठाए जिन्होंने भारत को दो हिस्सों में बांटने की नींव रखी।

आंबेडकर नहीं चाहते थे बंटवारा हो

आंबेडकर ने अपनी पुस्तक में दो राष्ट्र सिद्धांत का पुरजोर विरोध किया। उनका तर्क था कि यदि कनाडा, स्विट्ज़रलैंड और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश जहां अलग-अलग नस्ल, भाषा और संस्कृति के लोग एकजुट होकर रह सकते हैं, तो भारत में हिंदू और मुस्लिम समुदाय एक साथ क्यों नहीं रह सकते? उन्होंने लिखा कि बराबरी पर ध्यान देने से विभाजन की जरूरत ही खत्म हो जाती।

डॉ आंबेडकर का मानना था कि विभाजन का आधार सांप्रदायिक भय और राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं, न कि कोई ठोस सामाजिक या सांस्कृतिक असंगति। उन्होंने सवाल उठाया कि मुसलमान हिंदुओं के साथ रहते हुए अपनी सांस्कृतिक पहचान के लुप्त होने से क्यों डरते हैं? कुछ नेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए ये डर बैठाया था।

आंबेडकर ने सांप्रदायिक राजनीति के बजाय सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने की बात कही। उनका मानना था कि भारत की विविधता उसकी ताकत है  कि कमजोरी। उन्होंने तर्क दिया कि यदि समाज में समानता और भाईचारे को प्राथमिकता दी जाए, तो सांप्रदायिक तनाव अपने आप कम हो जाएंगे। उनकी ये सोच आज भी प्रासंगिक है, जब देश में वक्त वक्त पर धार्मिक और सांस्कृतिक मतभेदों को लेकर विवाद देखने को मिलता है।

आंबेडकर ने ये भी चेतावनी दी थी कि विभाजन न केवल भारत को कमजोर करेगा, बल्कि दोनों देशों के बीच दुश्मनी को जन्म देगा। आज जब हम भारत-पाकिस्तान संबंधों में विवाद और युद्ध के दंश को देखते हैं, तो आंबेडकर की यह दूरदर्शिता और भी स्पष्ट हो जाती है।