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Up Kiran, Digital Desk: दस मई की शाम को जब भारत और पाकिस्तान ने अचानक संघर्षविराम (Ceasefire) की घोषणा की तो हर किसी की नजरें स्क्रीन पर टिक गईं। दोनों देशों के बीच कई दिनों से जारी तनाव गोलाबारी और कड़ी सैन्य कार्रवाई के बाद यह खबर किसी चमत्कार से कम नहीं थी। मगर क्या यह युद्ध विराम स्थायी शांति की शुरुआत है या फिर कुछ दिनों की शांति के बाद फिर से पुराने हालात लौट आएंगे।
ऑपरेशन सिंदूर और सरहदी तनाव
बीते सप्ताहों में हालात तेजी से बिगड़े। भारत के पहलगाम में हुए हमले के बाद भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत जवाबी कार्रवाई की। छह और सात मई की रात भारतीय सेना ने पाकिस्तान और पीओके (पाक अधिकृत कश्मीर) में कई ठिकानों पर हमले किए। पाकिस्तान की तरफ से भी भारी गोलाबारी हुई जिससे दोनों ओर जन और धन की क्षति हुई। सोशल मीडिया पर आई तस्वीरें और वीडियो ने इन हमलों की भयावहता को और भी स्पष्ट कर दिया।
डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका
10 मई की शाम को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया पर ऐलान किया कि अमेरिका की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान ने पूर्ण और तत्काल संघर्षविराम पर सहमति जताई है। उनका यह ट्वीट वायरल हो गया और इसके बाद भारत और पाकिस्तान दोनों सरकारों ने इसे औपचारिक रूप से स्वीकार किया।
ट्रंप की इस भूमिका को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं- कुछ ने इसे अमेरिका की डिप्लोमेसी की जीत बताया तो कुछ ने भारत की स्वायत्त नीति पर सवाल उठाए।
कुछ उछल रहा इंदिरा गांधी का नाम
इस कड़ी में भारतीय राजनीति में भी बहस शुरू हो गई। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा कि 1971 में इंदिरा गांधी ने उपमहाद्वीप का नक्शा बदल दिया था। उनका कहना था कि उस समय बांग्लादेश की आज़ादी एक स्पष्ट और नैतिक उद्देश्य था जबकि आज के हालात में पाकिस्तान पर केवल गोले दागने से क्या हासिल होगा।
कांग्रेस के एक्स (Twitter) हैंडल से इंदिरा गांधी और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की तस्वीर साझा कर एक पुराना बयान याद दिलाया गया कि हमारी रीढ़ की हड्डी सीधी है। हम हर अत्याचार का सामना कर सकते हैं।
इस तरह की पोस्ट्स ने सोशल मीडिया पर एक नई बहस को जन्म दिया—क्या आज की सरकार भी उसी तरह अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद भारत की गरिमा के साथ खड़ी हो सकती है?
क्या इतिहास को दोहराना मुमकिन
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि 1971 और 2025 की तुलना करना एक सतही विश्लेषण है। 1971 में भारत के पास सोवियत संघ का समर्थन था जो अब मौजूद नहीं है। पाकिस्तान उस समय परमाणु शक्ति से रहित था मगर अब वह एक न्यूक्लियर स्टेट है जिससे किसी भी सैन्य टकराव के खतरे कहीं ज़्यादा हैं।
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