Up Kiran, Digital Desk: उत्तर प्रदेश की सियासत में हर बार सत्ता बदलते ही पत्थर और कांस्य के नए प्रतीक खड़े हो जाते हैं। पहले मायावती ने दलित अस्मिता को भव्य स्वरूप दिया। फिर अखिलेश यादव ने समाजवादी विचारधारा के नाम पर हरे-भरे पार्क बनवाए। अब योगी सरकार बड़े पैमाने पर अटल बिहारी वाजपेयी, दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के स्मारक और राष्ट्र प्रेरणा स्थल तैयार कर रही है। सवाल यह है कि ये विशाल खर्च जनता के लिए प्रेरणा बनेंगे या सिर्फ सत्ताधारी दल की राजनीतिक ब्रांडिंग?
हर दल की अपनी विचारधारा, अपना प्रतीक
जब-जब सरकार बदली तब-तब राजधानी लखनऊ और प्रदेश के कोने-कोने में नई मूर्तियाँ और पार्क उभरे। बसपा के समय हाथी और दलित नायकों के स्मारक बने। सपा ने लोहिया और जनेश्वर मिश्रा के नाम पर विशाल हरित क्षेत्र विकसित किए। अब भाजपा अपने वैचारिक पुरखों को स्थायी रूप देने में जुटी है। इन सबमें एक बात आम है – हर दल अपने महापुरुषों को ऊँचा दिखाकर वोटरों का दिल जीतना चाहता है।
विपक्ष ने उठाए सवाल
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता फखरुल हसन चाँद कहते हैं कि सम्मान देना ठीक है लेकिन खोखला सम्मान नहीं चलता। अटल जी के नाम का विश्वविद्यालय आज तक किराए के भवन में चल रहा है। हमने जब अपने नेताओं की मूर्तियाँ लगाईं तो उनके नाम पर अस्पताल और सुविधाएँ भी दीं।
बसपा के प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल का कहना है कि हमने उन महापुरुषों को जगह दी जिन्हें सदियों से नजरअंदाज किया गया। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने संविधान बनाया मगर उनके बाद भी हमारे नायकों को उचित सम्मान नहीं मिला।
भाजपा इसे अलग नजर से देखती है। पार्टी प्रवक्ता अवनीश त्यागी बोले कि ये केवल पत्थर की मूर्तियाँ नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा के केंद्र हैं। विपक्ष को हर सकारात्मक काम में भी राजनीति नजर आती है।
2027 के चुनाव पर नजर?
वरिष्ठ पत्रकार विजय दुबे मानते हैं कि 2027 के विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर भाजपा अपनी विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाने का बड़ा अभियान चला रही है। अटल, दीन दयाल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नामों को स्मारकों के जरिए जीवंत रखकर पार्टी मतदाताओं में भावनात्मक जुड़ाव बनाने की कोशिश कर रही है।
आखिर जनता को मिल क्या रहा?
यूपी की राजनीति में अब मूर्तियाँ सिर्फ सजावट नहीं रह गईं। वे सत्ता की पहचान बन गई हैं। हर दल अपने प्रतीकों से इतिहास लिखना चाहता है। लेकिन आम नागरिक बार-बार यही पूछ रहा है कि इतने अरबों रुपये खर्च करने के बाद उसे बेहतर स्कूल, अस्पताल और रोजगार कब मिलेगा? या ये स्मारक सिर्फ चुनावी संदेश बनकर रह जाएँगे?
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