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Up Kiran, Digital Desk: हरतालिका तीज का त्योहार सिर्फ सजने-संवरने और भूखे-प्यासे रहकर व्रत रखने का ही नहीं है। इस व्रत के पीछे छिपी है एक बहुत ही सुंदर और प्रेरणा देने वाली कहानी। यह कहानी है माता पार्वती के अटूट प्रेम, उनकी तपस्या और उनके विश्वास की।

क्या आप जानते हैं कि इस व्रत का नाम 'हरतालिका' क्यों पड़ा? इसका भी एक बहुत गहरा मतलब है। चलिए, आज मैं आपको यह पूरी कहानी बहुत ही सरल शब्दों में सुनाता हूँ, जिसे सुनकर आपका इस व्रत पर विश्वास और भी गहरा हो जाएगा।

कहानी की शुरुआत: कहानी शुरू होती है माता पार्वती के जन्म से। उनका जन्म पर्वतराज हिमालय के घर हुआ था और बचपन से ही उनके मन में भगवान शिव के लिए गहरा प्रेम था। वह मन ही मन शिव जी को अपना पति मान चुकी थीं और उन्हें पाने के लिए कठोर तप करती थीं।

जब पार्वती जी विवाह के योग्य हुईं, तो उनके पिता हिमालय को भी उनकी शादी की चिंता सताने लगी।

कहानी में आया एक मोड़: एक दिन देवर्षि नारद, पर्वतराज हिमालय के पास पहुंचे और कहा कि भगवान विष्णु आपकी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं। यह सुनकर हिमालय राज बहुत प्रसन्न हुए, क्योंकि भगवान विष्णु से अच्छा वर उनकी बेटी के लिए और कौन हो सकता था? उन्होंने तुरंत इस रिश्ते के लिए अपनी सहमति दे दी।

लेकिन जब यह बात माता पार्वती को पता चली, तो उनका दिल टूट गया। वह तो सिर्फ शिव जी से ही विवाह करना चाहती थीं। उन्होंने अपनी यह पीड़ा अपनी एक बहुत प्रिय सखी को बताई।

हरतालिका' का असली मतलब: माता पार्वती की दुविधा देखकर उनकी सखी ने एक उपाय सुझाया। उन्होंने पार्वती जी से कहा कि वह उन्हें एक बहुत घने जंगल में छिपा देंगी, जहाँ वह शांति से शिव जी को पाने के लिए तपस्या कर सकें।

अपनी सखी की बात मानकर, पार्वती जी उनके साथ उस जंगल में चली गईं। 'सखी' को 'आलिका' भी कहा जाता है और 'हरत' का मतलब है 'हरण कर लेना'। क्योंकि एक सखी ने माता पार्वती का हरण करके उन्हें जंगल पहुंचाया था, इसीलिए इस व्रत का नाम "हरत-आलिका" यानी हरतालिका पड़ा।

माता पार्वती की कठोर तपस्या: उस घने जंगल में पहुंचकर माता पार्वती ने रेत से एक शिवलिंग बनाया और उसकी पूजा करने लगीं। उन्होंने अन्न-जल सब कुछ त्याग दिया। सिर्फ पत्ते खाकर और फिर बाद में उसे भी छोड़कर, उन्होंने कठोर तपस्या शुरू कर दी। सर्दी, गर्मी, बरसात, हर मौसम में उनकी तपस्या चलती रही।

उनकी इस अटूट भक्ति और कठोर तप को देखकर भगवान शिव का आसन भी हिल गया। वह माता पार्वती की परीक्षा लेने के बारे-सोचते हैं लेकिन उनकी भक्ति को देखकर प्रसन्न हो जाते हैं।

जब मिला तपस्या का फल: माता पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान शिव उनके सामने प्रकट हुए और उनसे वरदान मांगने को कहा। माता पार्वती ने उनसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने का वरदान मांगा। भगवान शिव ने मुस्कुराते हुए उनकी यह इच्छा पूरी की और उन्हें अपनी पत्नी बनाना स्वीकार कर लिया।

इसके बाद माता पार्वती ने अपनी पूजा और व्रत का विसर्जन किया। जब उनके पिता हिमालय उन्हें ढूंढते हुए वहां पहुंचे, तो पूरी बात जानकर वह भी बहुत खुश हुए और उन्होंने भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह धूमधाम से संपन्न कराया।

क्यों खास है यह व्रत: मान्यता है कि जो भी सुहागिन स्त्री इस दिन सच्चे मन से व्रत रखती है और यह कथा सुनती है, उसे मां पार्वती और शिव जी का आशीर्वाद मिलता है। उसके पति की आयु लंबी होती है और उनका वैवाहिक जीवन सुख-शांति से भर जाता है। वहीं, कुंवारी कन्याएं अगर यह व्रत रखती हैं, तो उन्हें भी मनचाहे और योग्य वर की प्राप्ति होती है।

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