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Up Kiran, Digital Desk: ईरान और यहूदी देश इजरायल के मध्य 12 दिनों के टकराव के बाद संघर्ष-विराम ने वैश्विक तेल बाजार में एक अजीबोगरीब स्थिति पैदा कर दी है। भू-राजनीतिक तनाव बढ़ने पर आमतौर पर तेल की कीमतों में बड़ा उछाल आता है खासकर होर्मुज जलडमरूमध्य के बंद होने की आशंका से। मगर इस बार हकीकत बिल्कुल उलट है। ब्रेंट क्रूड मंगलवार को 70 डॉलर प्रति बैरल के निशान से भी नीचे गिर गया और इसकी वजह है फारस की खाड़ी से कच्चे तेल की एक बड़ी 'लहर' जो पहले से ही भरे पड़े वैश्विक बाजार में पहुंच रही है।

उत्तरी गोलार्ध में गर्मी का मौसम भले ही तेल की मांग में थोड़ी बढ़ोतरी करता हो मगर उसके बाद तेल की अत्यधिक सप्लाई की समस्या और भी ज्यादा स्पष्ट हो जाएगी। विश्लेषकों का मानना है कि तेल की कीमतें बहुत तेजी से गिरने वाली हैं। यह मौजूदा भू-राजनीतिक उथल-पुथल ने न केवल 2025 बल्कि 2026 में भी तेल की मांग और सप्लाई के बीच के अंतर को और बढ़ा दिया है। वैसे भारत के लिए यह स्थिति शुभ संकेत है क्योंकि कच्चे तेल की घटती कीमतें देश की अर्थव्यवस्था के लिए हमेशा अच्छी मानी जाती हैं।

भू-राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ती सप्लाई का खेल

भू-राजनीतिक अस्थिरता आमतौर पर व्यापार और पर्यटन के लिए अच्छी नहीं मानी जाती। यह तेल की खपत में बढ़ोतरी को भी धीमा कर सकती है खासकर मध्य पूर्व जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में। मगर सबसे बड़ा गेम-चेंजर तेल की सप्लाई में देखने को मिल रहा है जो बाजार में तेल की भरमार कर रहा है।

ईरान भी अपनी पूरी कोशिश कर रहा है कि उसके तेल निर्यात के सही आंकड़े सामने न आएं मगर सैटेलाइट तस्वीरों और जहाजों से मिले डेटा कुछ और ही कहानी बयां करते हैं।

ईरान का 'छिपा हुआ' उत्पादन: सात साल के रिकॉर्ड स्तर पर

आंकड़ों से पता चलता है कि ईरान का तेल उत्पादन इस महीने 35 लाख बैरल प्रति दिन से ऊपर पहुंच जाएगा जो पिछले सात सालों में सबसे ज्यादा होगा। यह बात गौर करने लायक है कि इज़रायल और अमेरिका की बमबारी के बावजूद ईरान का तेल उत्पादन कम नहीं हुआ बल्कि बढ़ गया है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दो बातें बिल्कुल साफ कर दी हैं: पहला वह तेल की कीमतों को 70 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर नहीं जाने देना चाहते। दूसरा उन्हें अभी भी उम्मीद है कि वॉशिंगटन और तेहरान के बीच बातचीत हो सकती है। इसलिए व्हाइट हाउस द्वारा ईरान पर तेल प्रतिबंधों को और कड़ा करने की संभावना बहुत कम है। इस मामले में ट्रंप अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति जो बाइडेन की तरह ही दिखते हैं - बातें तो बहुत करते हैं मगर काम बहुत कम।

ओपेक+ और अमेरिकी शेल: हर तरफ से 'ओवरफ्लो'

फारस की खाड़ी के दूसरी ओर सऊदी अरब कुवैत इराक और संयुक्त अरब अमीरात भी एक महीने पहले की तुलना में अधिक तेल का उत्पादन कर रहे हैं। यह सच है कि ओपेक+ देशों के उत्पादन कोटा बढ़ाने के समझौते के बाद उत्पादन में बढ़ोतरी की उम्मीद थी फिर भी शुरुआती शिपिंग डेटा बताते हैं कि निर्यात उम्मीद से थोड़ा अधिक बढ़ रहा है खासकर सऊदी अरब से।

पेट्रो-लॉजिस्टिक्स एसए एक तेल टैंकर-ट्रैकिंग फर्म है जिसका उपयोग कई कमोडिटी ट्रेडिंग हाउस और हेज फंड करते हैं। इस फर्म का अनुमान है कि सऊदी अरब जून में बाजार को 96 लाख बैरल प्रतिदिन कच्चे तेल की सप्लाई करेगा जो दो साल में सबसे अधिक होगा। यह फर्म कुओं से निकलने वाले तेल की मात्रा के बजाय बाजार में आने वाले तेल की मात्रा को मापती है जबकि ओपेक कुओं से निकलने वाले तेल को मापना पसंद करता है।

पेट्रो-लॉजिस्टिक्स के प्रमुख डेनियल गेर्बर का कहना है "महीने के पहले भाग को देखते हुए फारस की खाड़ी क्षेत्र से तेल का एक बड़ा प्रवाह हो रहा है।" जून के शुरुआती हफ्तों के आंकड़ों से पता चलता है कि इराक और संयुक्त अरब अमीरात से भी मजबूत निर्यात हो रहा है जो आमतौर पर ओपेक+ उत्पादन स्तरों पर 'धोखाधड़ी' करते हैं। यहां जोखिम कम नहीं बल्कि ज्यादा है।

इसके बाद अमेरिकी शेल तेल उत्पादन की बात आती है। मई में अमेरिकी तेल उद्योग मुश्किल में था जब कच्चे तेल की कीमत 55 डॉलर प्रति बैरल के करीब थी। इन कीमतों पर अमेरिकी तेल उत्पादन में साल के दूसरे भाग में थोड़ी गिरावट शुरू होने वाली थी और 2026 में यह और भी गिर जाता। मगर हाल के संघर्ष ने कच्चे तेल को 78।40 डॉलर प्रति बैरल के शिखर पर पहुंचा दिया। इससे अमेरिकी शेल उत्पादकों को आगे की कीमतों को 'लॉक-इन' करने का एक अप्रत्याशित अवसर मिल गया जिससे उन्हें पहले की तुलना में अधिक ड्रिलिंग जारी रखने में मदद मिली।

भारत के लिए क्यों है यह 'बड़ी खुशखबरी'

भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश है जो अपनी 85% से अधिक तेल जरूरतों को आयात के जरिए पूरा करता है। ऐसे में कच्चे तेल की कीमतों का घटना भारत के लिए एक बड़ा वरदान साबित होता है-

आयात बिल में कमी: कच्चे तेल की कीमतें घटने से भारत का तेल आयात बिल काफी कम हो जाता है। इससे विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव कम होता है रुपये को स्थिरता मिलती है और देश का व्यापार घाटा भी कम होता है।

महंगाई पर लगाम: तेल की कीमतें सीधे तौर पर परिवहन लागत और विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन लागत को प्रभावित करती हैं। कम तेल की कीमतें ईंधन लागत को कम करती हैं जिससे ट्रकों ट्रेनों और अन्य परिवहन साधनों से माल ढुलाई सस्ती हो जाती है। यह उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों को कम करने में मदद करता है जिससे खुदरा महंगाई नियंत्रण में आती है। कम महंगाई भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) को ब्याज दरें कम करने के लिए जगह दे सकती है जिससे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा।

सरकारी खजाने को राहत: तेल आयात पर कम खर्च होने से सरकार के पास अपने बजट में अधिक गुंजाइश बचती है। सरकार इस अतिरिक्त पैसे का उपयोग विकास परियोजनाओं बुनियादी ढांचे के निवेश या सामाजिक कल्याण योजनाओं पर कर सकती है या फिर राजकोषीय घाटे को कम करने में मदद कर सकती है।

व्यवसायों को फायदा: कम ऊर्जा लागत व्यवसायों के लिए ऑपरेटिंग लागत को कम करती है जिससे उनकी लाभप्रदता बढ़ती है। यह निवेश को प्रोत्साहित कर सकता है और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को बढ़ावा दे सकता है जिससे समग्र आर्थिक बढ़ोतरी को रफ्तार मिलेगी।

 

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