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सनातन हिंदू धर्म में कई प्रकार के व्रत-त्योहार सालों भर मनाए जाने का विधान है। जिसमें पति, पुत्र, धन-धान्य, सौभाग्य और सुख समृद्धि की कामना की जाती है। इन्हीं त्योहारों में से एक है आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाने वाला जीवित्पुत्रिका व्रत (Jivitputrika Vrat)।

सप्तमी तिथि को नहाय-खाय के साथ इस व्रत का शुभ काल शुरू होता है और अष्टमी तिथि को महिलाएं निर्जला व्रत करती हैं। इस बार महिलाओं को इस व्रत में कठिन परीक्षा देनी होगी। 30 घंटा से अधिक समय तक उन्हें निराहार रहना होगा। ज्योतिष अनुसंधान केंद्र गढ़पुरा के संस्थापक पंडित आशुतोष झा ने बताया कि सप्तमी में नहाय-खाय के बाद प्रदोष काल में अष्टमी प्रवेश से जिउतिया व्रत (Jivitputrika Vrat) शुरू होता है।

उन्होंने बताया कि गुरुवार पांच अक्टूबर को सुबह 9:08 बजे तक षष्टी तिथि उसके बाद शुक्रवार को सुबह 9:35 बजे तक सप्तमी तिथि रहेगा। पांच अक्टूबर गुरुवार को व्रती नहाय-खाय करेगी तथा शुक्रवार को अहले सुबह 4:28 बजे तक ओठघन होगा। शुक्रवार की सुबह से उपवास शुरू हो जाएगा। शनिवार को अष्टमी तिथि सुबह 10:32 बजे तक रहेगा। उसके बाद 10:33 में नवमी तिथि का प्रवेश होने के साथ ही जिउतिया (Jivitputrika Vrat) का पारण शुरु होगा।

उन्होंने बताया कि जीवित्पुत्रिका व्रत (Jivitputrika Vrat) मां द्वारा अपनी संतान की लंंबी आयु, स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि, संतान प्राप्ति की कामना के साथ किया जाता है। कहा जाता है कि महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुण्य कर्मों को अर्जित करके उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को जीवनदान दिया था। इसलिए यह व्रत संतान की रक्षा की कामना के लिए किया जाता है। मान्यता है कि इस व्रत के फलस्वरुप भगवान श्रीकृष्ण संतान की रक्षा करते हैं।

इसमें गेहूं के आटे की रोटी खाने की बजाए मडुआ के आटे की रोटियां खाती हैं। नोनी का साग खाने की भी परंपरा है। जिसमें नोनी के साग में कैल्शियम और आयरन भरपूर मात्रा में होता है और व्रती के शरीर को पोषक तत्वों की कमी नहीं होती है। सनातन धर्म में पूजा-पाठ में मांसाहार का सेवन वर्जित माना गया है। लेकिन इस व्रत की शुरुआत बिहार में कई जगहों पर मछली खाकर की जाती है। इसके बाद शुभता का प्रतीक पान खाकर महिलाएं निर्जला व्रत (Jivitputrika Vrat) शुरू कर देती है।

कथाओं के अनुसार एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उसी पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थी, दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और भगवान जीमूत वाहन की पूजा और व्रत करने का प्रण ले लिया। लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गई और उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगने लगी थी।

मुर्दा देखकर वह खुद को रोक नहीं सकी और उसका व्रत (Jivitputrika Vrat) टूट गया। लेकिन चील ने संयम रखा और नियम और श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया। अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने भास्कर नमक ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। चील, बड़ी बहन बनी और सिया‍रन, छोटी बहन के रूप में जन्‍मीं। चील का नाम शीलवती रखा गया, शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई, जबकि सियारिन का नाम कपुरावती रखा गया और उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई।

भगवान जीमूत वाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। लेकिन कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए और राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में इर्ष्या की भावना आ गई तो उन सभी का सर काट दिए तथा कपड़े से ढंककर शीलवती के पास भेज दिया। यह देख जीमूत वाहन ने सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया। उनमें जान आ गई, सातों युवक जिंदा होकर घर लौट आए। तभी से इस व्रत (Jivitputrika Vrat) का विधान चल रहा है।

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