
बॉलीवुड में पहचान बनाना आसान नहीं होता, और जब बात हो 60 और 70 के दशक की, तो यह सफर और भी मुश्किल हो जाता है। आज हम एक ऐसे अभिनेता की बात कर रहे हैं जिन्होंने तमाम संघर्षों के बावजूद फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाई। 7 अप्रैल 1942 को जन्मे जितेंद्र ने मेहनत, लगन और धैर्य से जो मुकाम हासिल किया, वह लाखों कलाकारों के लिए मिसाल है।
मुंबई की चॉल से फिल्मी दुनिया तक का सफर
जितेंद्र ने अपना बचपन मुंबई की एक चॉल में गुजारा। वे करीब 18 साल तक वहीं रहे और संघर्षों से जूझते रहे। उनके परिवार का फिल्मों से एक खास रिश्ता था—उनके पिता और चाचा फिल्म इंडस्ट्री में जूलरी सप्लाई का काम करते थे। लेकिन परिवार की माली हालत तब और बिगड़ गई जब जितेंद्र को कम उम्र में ही दिल का दौरा पड़ा और इलाज में खर्चा बढ़ गया। ऐसे हालात में घर चलाना मुश्किल हो गया।
इस बीच, जितेंद्र ने अपने अंकल से कहा कि वह उन्हें मशहूर फिल्म निर्देशक वी. शांताराम से मिलवाएं। जितेंद्र का सपना था फिल्मों में एक्टर बनना, और वे उम्मीद के साथ शांताराम के पास पहुंचे। लेकिन वहां से जो जवाब मिला, वह दिल तोड़ने वाला था।
वी. शांताराम ने कहा – तुम्हें चांस नहीं दूंगा
जब जितेंद्र ने वी. शांताराम से फिल्मों में काम मांगा तो उन्हें साफ जवाब मिला – “तुम जितनी कोशिश कर लो, मैं तुम्हें चांस नहीं दूंगा।” यह बात जितेंद्र के लिए बहुत निराशाजनक थी, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। कुछ समय बाद शांताराम के ऑफिस से उन्हें बुलावा मिला, लेकिन शर्त यह थी कि उन्हें तभी मौका मिलेगा जब कोई जूनियर आर्टिस्ट उपलब्ध नहीं होगा।
राजकमल स्टूडियो में जितेंद्र को रोज जाना था और इसके लिए उन्हें 150 रुपये महीने की तनख्वाह दी जाती थी। उन्हें यह भी नहीं पता था कि कब और कैसे उन्हें कोई किरदार मिलेगा, लेकिन वे लगातार स्टूडियो जाते रहे।
काम की भूख ने बनाया 'नजरों में छाने वाला कलाकार'
जितेंद्र जानते थे कि शांताराम उन्हें पहले ही नकार चुके हैं, लेकिन वे रोज कुछ न कुछ ऐसा करने की कोशिश करते जिससे शांताराम की नजर उन पर पड़े। धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी और एक दिन वी. शांताराम ने उन्हें अपनी अगली फिल्म में स्क्रीन टेस्ट के लिए बुला लिया।
हालांकि शुरुआत में जितेंद्र का प्रदर्शन बहुत खराब रहा। वे एक डायलॉग भी ढंग से नहीं बोल पा रहे थे। करीब 30 टेक लिए गए, लेकिन बात नहीं बनी। इसके बावजूद उन्हें फिर से मौका दिया गया और आखिरकार उन्होंने स्क्रीन टेस्ट पास कर लिया। यहीं से उन्हें उनकी पहली फिल्म मिली।
‘गीत गाया पत्थरों ने’ से शुरू हुआ सफर
1964 में रिलीज हुई फिल्म ‘गीत गाया पत्थरों ने’ जितेंद्र की पहली फिल्म थी, जिसमें उन्हें मुख्य भूमिका निभाने का मौका मिला। यह फिल्म उनके करियर का टर्निंग पॉइंट साबित हुई और इंडस्ट्री में उन्हें पहचान मिलने लगी।
हीरो बनने के बाद घट गई सैलरी
जितेंद्र को जब पहली फिल्म मिली तो लगता है मानो सफलता मिल गई हो, लेकिन हकीकत इसके उलट थी। फिल्म के लिए साइन होने के बाद उनकी सैलरी 150 रुपये से घटाकर 100 रुपये कर दी गई। वजह यह बताई गई कि उन्हें ‘ब्रेक’ दिया गया है, इसलिए उनकी पगार घटा दी गई है। यही नहीं, इस घटाई हुई सैलरी के लिए भी उन्हें छह महीने इंतजार करना पड़ा।
संघर्ष बना सफलता की सीढ़ी
जितेंद्र का यह सफर उन तमाम युवाओं के लिए प्रेरणा है जो अभिनय की दुनिया में कदम रखना चाहते हैं। उन्होंने साबित किया कि अगर लगन हो, तो हालात कितने भी मुश्किल हों, मंजिल पाई जा सकती है।
आज जितेंद्र भले ही फिल्मों में ज्यादा सक्रिय नहीं हैं, लेकिन उनकी बेटी एकता कपूर टीवी और फिल्म इंडस्ट्री में एक बड़ा नाम बन चुकी हैं। और जितेंद्र का संघर्ष आज भी बॉलीवुड के इतिहास का एक प्रेरणादायक अध्याय बना हुआ है।