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Up Kiran, Digital Desk: कभी सोचा है, कोई ऐसा डायरेक्टर जिसने गिनी-चुनी फिल्में बनाईं, लेकिन वो फिल्में आज भी सिनेमा के इतिहास में अपनी एक अलग जगह रखती हैं? के. आसिफ (K. Asif) कुछ ऐसे ही जादुई निर्देशक थे, जिनका नाम लेते ही ज़हन में सबसे पहले आता है - 'मुगल-ए-आज़म'! ये वो फिल्म है जिसने हिंदी सिनेमा को एक नया मुकाम दिया और आज भी इसके चर्चे होते हैं।

'मुगल-ए-आज़म' का ख्वाब और हकीकत

के. आसिफ का असली नाम आसिफ करीम था। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत 1945 में 'फूल' फिल्म से की, जो एक हिट साबित हुई। लेकिन आसिफ का दिल तो बस एक ही ख्वाब देखता था - मुगलों की शानो-शौकत और मोहब्बत की वो दास्तान, जो अनारकली और शहजादा सलीम के इर्द-गिर्द बुनी गई थी। इस फिल्म पर काम शुरू हुआ 1944 में, लेकिन इसे पर्दे पर उतारने में लगे पूरे 16 साल! जी हाँ, 'मुगल-ए-आज़म' कोई फिल्म नहीं, बल्कि एक सपना था जिसे आसिफ ने अपनी ज़िंदगी के सालों, अपनी सारी दौलत और अपने जूनून से साकार किया।

इस फिल्म के लिए उन्होंने दिलीप कुमार और मधुबाला जैसी शानदार जोड़ी को चुना, जिनकी केमिस्ट्री आज भी दर्शकों के दिलों में बसती है। फिल्म का हर सीन, हर डायलॉग, हर गाना, हर कॉस्ट्यूम - सब कुछ इतना भव्य और बारीकी से तैयार किया गया था कि आज के दौर की फिल्में भी उससे प्रेरणा लेती हैं। कहा जाता है कि फिल्म के सेट्स, प्रॉप्स और बाकी चीज़ों पर इतना खर्च हुआ था कि उस ज़माने में "10 ट्रक सामान कबाड़ में बेचकर" फिल्म को पूरा करने की बात कही जाती थी। यह आसिफ के परफेक्शन (पूर्णता) के जुनून का ही नतीजा था।

सिर्फ दो फिल्में, पर दो मंज़िलें

वैसे तो के. आसिफ ने अपने छोटे से करियर में गिनी-चुनी फिल्में ही डायरेक्ट कीं, लेकिन उनकी बनाई हुई फिल्में मिसाल बन गईं। 'मुगल-ए-आज़म' के अलावा, उन्होंने 'फूल' (1945) से डायरेक्टिंग की शुरुआत की थी। उनके कुछ और बड़े प्रोजेक्ट्स भी थे, जैसे 'लव एंड गॉड' (Love and God)। इस फिल्म पर तो उन्होंने 'मुगल-ए-आज़म' से भी ज़्यादा वक्त लगाया, लेकिन अफसोस कि ये फिल्म उनके जीते जी पूरी नहीं हो सकी। लीड एक्टर गुरु दत्त की मौत के बाद, फिर संजीव कुमार को लेकर काम शुरू हुआ, लेकिन आसिफ के निधन के बाद ये फिल्म अधूरी ही रह गई, जिसे बाद में उनकी पत्नी ने रिलीज़ करवाया।

क्यों थे के. आसिफ इतने खास?

के. आसिफ सिर्फ डायरेक्टर नहीं थे, वो एक विज़नरी थे। वो अपनी फिल्मों को सिर्फ बनाते नहीं थे, बल्कि रचते थे। उनकी परफेक्शन की चाहत इतनी ज़्यादा थी कि वो हर छोटी से छोटी चीज़ पर घंटों, दिनों बहस कर सकते थे। ये जुनून ही था जिसने 'मुगल-ए-आज़म' को इतना यादगार बनाया। भले ही उनके नाम गिनी-चुनी फिल्में हों, लेकिन 'मुगल-ए-आज़म' के ज़रिए उन्होंने भारतीय सिनेमा में अपनी एक ऐसी जगह बना ली है, जहाँ कोई और नहीं पहुँच सकता।

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