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Up Kiran, Digital Desk: आगामी सप्ताह में ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराघची की भारत यात्रा की संभावनाएं तेजी से चर्चा का विषय बन गई हैं। सूत्रों के मुताबिक, अराघची 8 मई को दिल्ली पहुंच सकते हैं, जहां उनकी मुलाकात भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर से होनी तय मानी जा रही है। इस यात्रा की संवेदनशीलता और समय को देखते हुए इसे न केवल भारत-पाकिस्तान रिश्तों के परिप्रेक्ष्य में, बल्कि वैश्विक कूटनीति के संदर्भ में भी अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
पहलगाम आतंकी हमला: साझा चिंता, साझा प्रतिक्रियाएं
कश्मीर के पहलगाम में हाल ही में हुए भीषण आतंकी हमले में 26 लोगों की मौत के बाद क्षेत्रीय सुरक्षा पर गहरी चिंता जताई गई है। इस घटना के तुरंत बाद ईरान ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी। ईरानी राष्ट्रपति मसूद पेजेश्कियान ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फोन पर बात कर इस अमानवीय हमले की निंदा की और आतंकवाद के विरुद्ध भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने का आश्वासन दिया।
मध्यस्थता का प्रस्ताव: एक नई भूमिका में ईरान
चौंकाने वाला घटनाक्रम यह रहा कि अराघची ने भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव को कम करने के लिए ईरान की ओर से मध्यस्थता की पेशकश भी की। 25 अप्रैल को X (पूर्व ट्विटर) पर दिए गए बयान में उन्होंने भारत और पाकिस्तान को 'भाई जैसे पड़ोसी' बताते हुए कहा कि तेहरान दोनों के साथ बेहतर समझ कायम करने के लिए पूरी कोशिश करने को तैयार है। इसके अलावा, उन्होंने पाकिस्तान के उपप्रधानमंत्री और विदेश मंत्री मुहम्मद इशाक डार से भी बात की थी।
संभावित वार्ता के मुद्दे
नई दिल्ली स्थित ईरानी दूतावास के अनुसार, अराघची और जयशंकर के बीच बातचीत में पहलगाम हमले के सभी पहलुओं पर चर्चा की जाएगी। इसके साथ ही द्विपक्षीय संबंधों, क्षेत्रीय स्थिरता और वैश्विक राजनीति पर भी विचार विमर्श होगा। विशेषज्ञों का मानना है कि ईरान की यह पहल भारत के लिए कूटनीतिक रूप से कई मायनों में उपयोगी हो सकती है, खासकर ऐसे समय में जब अमेरिका और ईरान के बीच संबंध तनावपूर्ण हैं और पाकिस्तान के साथ भी ईरान का रिश्ता सहज नहीं रहा है।
क्षेत्रीय सहयोग और भारत-ईरान संबंध
ईरानी राष्ट्रपति ने इस मौके पर भारत को आतंकवाद के विरुद्ध साझा लड़ाई में साझेदार बताते हुए यह भी कहा कि क्षेत्रीय सहयोग ही स्थायी समाधान दे सकता है। उन्होंने पीएम मोदी को तेहरान आने का आमंत्रण भी दिया और दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक सांस्कृतिक संबंधों की ओर इशारा करते हुए गांधी और नेहरू को 'शांति के दूत' बताया।
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