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Up Kiran, Digital Desk: मुंबई की राजनीति में एक दिलचस्प मोड़ आया है। जो आंदोलन कभी कबूतरों के संरक्षण के नाम पर शुरू हुआ था, अब वह पूरी तरह से राजनीतिक रंग में रंग चुका है। दादर में हुए एक सार्वजनिक आयोजन में इस बदलाव की आधिकारिक घोषणा की गई।
'शांति दूत' से 'जनकल्याण' तक का सफर
निलेश चंद्र, जो अब तक एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते थे, उन्होंने दादर ईस्ट में आयोजित एक सभा में शांति दूत जनकल्याण पार्टी के गठन का ऐलान किया। उन्होंने खुले मंच से यह भी साफ कर दिया कि उनका लक्ष्य सिर्फ सामाजिक सुधार नहीं, बल्कि चुनावी राजनीति में भी अपनी पकड़ बनाना है।
उनके शब्दों में, "अब हमारी लड़ाई विधान सभा और संसद तक जाएगी। संत समाज चाहे तो सत्ता की तस्वीर बदल सकता है।"
धर्म, परंपरा और राजनीति का मेल
इस सभा में कई हिंदू धर्मगुरुओं ने भी हिस्सा लिया। मंच से स्पष्ट संकेत दिया गया कि यह आंदोलन केवल जीवदया के नाम पर नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों की रक्षा के लिए है। वक्ताओं ने साफ कहा कि जब-जब जीव हत्या होगी, संत समाज एकजुट होकर उसका विरोध करेगा।
एक धर्मगुरु ने तो मंच से कहा, "जब संतों की शक्ति एकजुट होती है, तब सत्ता हिलती है। हमारे लिए हर प्राणी का जीवन मूल्यवान है, और हम इसे किसी भी कीमत पर सुरक्षित रखेंगे।"
सिर्फ श्रद्धांजलि नहीं, राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन
जहां एक ओर यह आयोजन कबूतरों के प्रति संवेदना जताने के लिए किया गया था, वहीं इसका माहौल कुछ और ही कहानी कहता दिखा। पूरे आयोजन में राजनीतिक जोश, नारों और सियासी बयानबाज़ी ने यह साफ कर दिया कि यह कोई साधारण सभा नहीं थी।
निलेश चंद्र ने कहा, "ये मासूम कबूतर अब तय करेंगे कि सत्ता में कौन रहेगा। अगर शराब और सिगरेट को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता, तो इन बेगुनाह प्राणियों के साथ क्यों अन्याय?"
बालासाहेब ठाकरे का नाम लेते हुए उन्होंने भावनात्मक अपील की और कहा कि अगर ठाकरे आज होते, तो किसी को विवादित बयान देने की हिम्मत न होती।
राजनीतिक विश्लेषकों की राय
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि शांति दूत जनकल्याण पार्टी का उदय एक नए वोट बैंक की तलाश को दर्शाता है। महाराष्ट्र के चुनावी परिदृश्य में धर्म और परंपरा के नाम पर बनी यह पार्टी बीएमसी से लेकर विधानसभा चुनावों तक में असर डाल सकती है।
विशेषज्ञों का मानना है कि मुंबई जैसे महानगर में जहां एक ओर परंपरागत धार्मिक स्थल हैं, वहीं तेजी से होते शहरीकरण ने कई टकराव भी पैदा किए हैं। इस माहौल में ऐसी पार्टी प्रशासन और मौजूदा राजनीतिक दलों के लिए नई चुनौती बन सकती है।