img

डेस्क। शिव को संहार का देवता माना गया है। जब वह तांडव करते हैं तो अहंकार का विनाश होता है। सनातन परंपरा में शिव की तांडव या नृत्य करती हुई मूर्ति या चित्र आम हैं। दरअसल, नृत्य उत्सव, खुशी, मिलन, कृतज्ञता, उत्साह और असीम शांति से भरी एक दिव्य अनुभूति है। 

शास्त्रों के अनुसार नृत्य में हमारी ऊर्जा ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ एककार होने लगती है। नृत्य करती शिव की नटराज प्रतिमा का आशय है कि संसार गति एवं लय से भरा है। संसार का कण-कण नृत्य कर रहा है। नृत्य में गति है। नृत्य की इसी गति को पाना परमात्मा को पाना है।

शास्त्रों के अनुसार नृत्य करने वाला व्यक्ति परमात्मा की परम पूजा में लीन होता है। नृत्य मानसिक विकारों को खत्म करता है। नृत्य परमात्मा की पूजा है। नृत्य के समय विचार आदि ठहर जाते हैं। भय या दुख विलीन हो जाते हैं। भूत-भविष्य का भी लोप हो जाता है। नृत्य के क्षण का  आनंद परमात्मा से साक्षात मिलन का साक्षी होता है।

वैदिक काल से ही नृत्य भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। इसी तरह स्कंद पुराण में शिव के नटराज मुद्रा में होने की कथा है। नटराज की मूर्ति के पैरों तले अपस्मरा नाम का राक्षस है, जो अभिमान और अज्ञानता का प्रतीक है।

सनातन परंपरा में कोई भी उत्सव नृत्य के बगैर पूरा नहीं माना जाता। नृत्य के जरिए अज्ञान और अभिमान को खत्म करना हमारी सांस्कृतिक विरासत है। इसीलिए तो भरतनाट्यम्, कथकली, कथक, ओडिसी, मणिपुरी, मोहिनीअट्टम, कुचिपुड़ी नृत्य आदि भारत की विरासत हैं। नृत्य की ये विधाएँ परमात्मा के अलग-अलग रूपों की आराधना के लिए वर्णित हैं। 

--Advertisement--