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Up Kiran, Digital Desk: विधानसभा से पास हुए बिलों को मंजूरी देने में राज्यपालों की देरी के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी की है. मंगलवार को सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 में भले ही 'यथाशीघ्र' (as soon as possible) शब्द का उल्लेख न भी होता, तब भी राज्यपालों से यह उम्मीद की जाती है कि वे "एक उचित समयसीमा" के अंदर विधेयकों पर फैसला लें.

क्या है पूरा मामला: सुप्रीम कोर्ट में एक संविधान पीठ इस बात पर सुनवाई कर रही है कि क्या विधानसभाओं द्वारा पारित बिलों पर फैसला लेने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा तय की जा सकती है. यह सुनवाई राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए एक रेफरेंस पर हो रही है.

सुनवाई के दौरान पंजाब सरकार की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील अरविंद दातार ने दलील दी कि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 200 में 'यथाशीघ्र' शब्द सोच-समझकर डाला था. उन्होंने कहा कि अदालत को यह अधिकार है कि वह बिलों पर मंजूरी के लिए तीन महीने जैसी कोई समयसीमा तय कर दे.

सुप्रीम कोर्ट की बड़ी टिप्पणी

इस पर मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा, “अगर 'जितनी जल्दी हो सके' शब्द वहां नहीं भी होता, तब भी राज्यपाल से एक उचित समय के भीतर कार्य करने की उम्मीद की जाती है.” इसका सीधा मतलब है कि राज्यपाल किसी बिल को अनिश्चितकाल के लिए अपनी मेज पर नहीं रख सकते. अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि वह केवल संविधान की व्याख्या करेगी और अलग-अलग राज्यों के मामलों के तथ्यों पर नहीं जाएगी.

क्या कहता है अनुच्छेद 200?

संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को विधानसभा से पारित बिल पर फैसला लेने की शक्ति देता है. इसके तहत राज्यपाल:

बिल को अपनी सहमति दे सकते हैं.

सहमति रोक सकते हैं.

बिल (अगर यह मनी बिल नहीं है) को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को लौटा सकते हैं.

बिल को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकते हैं

अदालत में यह भी तर्क दिया गया कि राज्यपाल का बिल को रोकना सिर्फ उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेजने से जुड़ा है, यह कोई "स्टैंडअलोन पॉज बटन" नहीं है जिसे हमेशा के लिए दबाकर रखा जा सके.

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