वर्षों से जलवायु परिवर्तन (Climate Change) से निपटने के नियम अमीर और विकसित देश बनाते आए हैं, जबकि इसका सबसे बुरा असर एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के गरीब और विकासशील देशों पर पड़ रहा है। इन्हीं देशों को सामूहिक रूप से 'ग्लोबल साउथ' कहा जाता । अब दुनिया भर के एक्सपर्ट्स ने एकमत से यह कहना शुरू कर दिया है कि अगर हमें सच में इस संकट से बचना है, तो अब नियम बनाने की ताकत ग्लोबल साउथ के हाथों में देनी होगी।
विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने का अगला दौर अब इन विकासशील देशों द्वारा ही तय किया जाना चाहिए।
क्यों जरूरी है यह बदलाव?
सबसे ज्यादा प्रभावित, सबसे ज्यादा अनुभवी: ग्लोबल साउथ के देश जलवायु परिवर्तन की सबसे भयानक मार झेल रहे हैं - चाहे वो विनाशकारी बाढ़ हो, भयंकर सूखा हो या समुद्र का बढ़ता जलस्तर। उन्होंने इस संकट को जिया है, इसलिए वे इसे खत्म करने के तरीके भी बेहतर समझते हैं।
नैतिक अधिकार: इन देशों ने पर्यावरण को सबसे कम नुकसान पहुंचाया है, फिर भी वे सबसे ज्यादा भुगत रहे हैं। इसलिए, अब नियम बनाने का नैतिक अधिकार भी उन्हीं के पास है। यह कोई भीख नहीं, बल्कि न्याय की मांग है।
पुरानी व्यवस्था हो चुकी है फेल: विकसित देशों द्वारा बनाए गए नियम अक्सर उनकी अपनी आर्थिक सहूलियत के हिसाब से होते हैं, जिससे वे अपनी जिम्मेदारी से बच निकलते हैं। यह साबित हो चुका है कि पुरानी व्यवस्था इस वैश्विक संकट को हल करने में पूरी तरह से नाकाम रही है।
अब आगे क्या: विशेषज्ञों का मानना है कि अब समय आ गया ਹੈ ਕਿ ग्लोबल साउथ के देश एकजुट हों और एक मजबूत आवाज में अपनी बात रखें। उन्हें सिर्फ मदद मांगने वाले की भूमिका से बाहर निकलकर, दुनिया का नेतृत्व करने की भूमिका में आना होगा। उन्हें मिलकर ऐसे नियम बनाने होंगे जो सिर्फ कागजों पर अच्छे न लगें, बल्कि जमीन पर काम करें और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित करें।
जलवायु परिवर्तन के खिलाफ यह लड़ाई अब सिर्फ पर्यावरण बचाने की नहीं, बल्कि वैश्विक न्याय और समानता की लड़ाई भी बन चुकी ਹੈ, और ਇਸ लड़ाई का नेतृत्व अब ग्लोबल साउथ को ही करना होगा।
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