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Up Kiran, Digital Desk: बिहार में विधानसभा चुनाव का माहौल अभी पूरी तरह तैयार भी नहीं हुआ है, लेकिन कांग्रेस के भीतर टिकट को लेकर सियासी हलचल तेज़ हो गई है। राहुल गांधी द्वारा संभावित रूप से लिए गए एक रणनीतिक फैसले ने न केवल पार्टी के जिला अध्यक्षों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है, बल्कि स्थानीय स्तर पर जनता की भागीदारी और प्रतिनिधित्व को लेकर भी नई बहस छेड़ दी है।
सूत्रों की मानें तो राहुल गांधी संगठनात्मक मजबूती के लिए एक अहम कदम उठाने जा रहे हैं — इस बार जिला अध्यक्षों को विधानसभा चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जाएगी। यदि यह फैसला लागू होता है, तो कांग्रेस के दर्जनों सक्रिय और लोकप्रिय जिलाध्यक्षों को टिकट नहीं मिलेगा।
भोपाल से उठी लहर, दिल्ली होते हुए बिहार तक पहुंचेगी
भोपाल में कुछ महीनों पहले हुए कांग्रेस के संगठन सृजन अभियान के दौरान राहुल गांधी ने यह संकेत दिया था कि संगठन से जुड़े पदाधिकारी अब चुनावी राजनीति में भाग नहीं लेंगे। उनका मानना था कि संगठनात्मक पद पर रहते हुए चुनाव लड़ने से फोकस बंटता है और गुटबाज़ी को बढ़ावा मिलता है। यही मॉडल अब बिहार चुनाव में भी लागू होने की संभावना है।
पार्टी में होगी अनुशासन की सख्ती, पर क्या होगा ज़मीनी असर?
कांग्रेस के इस संभावित कदम से एक तरफ संगठन की सख्ती और पारदर्शिता की तस्वीर उभरती है, वहीं दूसरी तरफ यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या स्थानीय स्तर पर जनप्रतिनिधित्व प्रभावित होगा? बिहार जैसे राज्य में जहां जातीय समीकरण और व्यक्तिगत लोकप्रियता ही चुनावी जीत की चाबी होती है, वहां जिलाध्यक्षों को चुनावी प्रक्रिया से बाहर रखना जनता के भरोसे को चोट पहुंचा सकता है।
राजनीतिक समीकरणों में बदलाव, कार्यकर्ताओं में बेचैनी
पार्टी के इस संभावित निर्णय से कार्यकर्ताओं के बीच असमंजस की स्थिति बन गई है। कई जिलाध्यक्ष, जो वर्षों से जनता के बीच सक्रिय रहे हैं और अपनी लोकप्रियता के दम पर टिकट की उम्मीद लगाए बैठे थे, अब खुद को हाशिए पर पाते हैं। इससे स्थानीय कार्यकर्ताओं में भी निराशा का माहौल बन सकता है, जो चुनाव के दौरान कांग्रेस के लिए नुक़सानदेह साबित हो सकता है।
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