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Up Kiran, Digital Desk: आज पूरे देश में खासकर बिहार के अररिया जिले और फारबिसगंज के शहर व ग्रामीण इलाकों में सुबह से ही एक अलौकिक और पवित्र माहौल देखने को मिला। कारण था—वट सावित्री व्रत। यह पर्व न सिर्फ हिंदू आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसमें छिपा है प्रकृति से जुड़ाव और पर्यावरण संरक्षण का गहरा संदेश।

सुबह से ही मंदिरों, घरों और वट वृक्ष के आसपास की जगहों पर सुहागिनों की भीड़ उमड़ पड़ी। परंपरागत परिधान, हाथों में पूजा की थाली, और दिल में पति की लंबी उम्र की कामना लिए महिलाएं वट वृक्ष की पूजा में जुटी रहीं। बरगद के पेड़ की जड़ों में जल चढ़ाना, धागा लपेटकर उसकी परिक्रमा करना और व्रत कथा सुनना—हर क्रिया में आस्था की गहराई झलक रही थी।

व्रत का उद्देश्य: श्रद्धा और समर्पण

वट सावित्री व्रत की कहानी कोई साधारण पौराणिक गाथा नहीं, बल्कि एक स्त्री की अटल निष्ठा और प्रेम की मिसाल है। माना जाता है कि सावित्री नामक स्त्री ने अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज से वापस लेकर आए थे। तभी से यह व्रत सुहागिन महिलाओं द्वारा अपने पति की दीर्घायु और सुख-समृद्धि के लिए रखा जाता है।

नवविवाहिताओं में दिखा खास उत्साह

इस साल व्रत को लेकर नवविवाहित महिलाओं में भी खासा उत्साह देखा गया। पहली बार इस पर्व में भाग लेने वाली बहुओं ने अपनी सास से विधिपूर्वक पूजा की विधि सीखी और पूरे मन से उसे निभाया। लाल साड़ी, मांग में सिंदूर, हाथों में चूड़ियाँ—यह दृश्य किसी उत्सव से कम नहीं था।

बरगद: पूज्य भी, पर्यावरण का प्रहरी भी

वट वृक्ष केवल धार्मिक आस्था का केंद्र नहीं, बल्कि हमारी धरती के पारिस्थितिकी तंत्र का अभिन्न हिस्सा है। हिंदू संस्कृति में पेड़-पौधों की पूजा हजारों वर्षों से चली आ रही है, और वट सावित्री व्रत उसी परंपरा की जीवंत मिसाल है। जब महिलाएं बरगद के पेड़ की परिक्रमा करती हैं, तो यह पूजा के साथ-साथ पर्यावरण के संरक्षण की एक सांकेतिक अभिव्यक्ति भी होती है।

शाम को होगा व्रत का पारण

महिलाएं पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं और व्रत का समापन शाम को पति के चरण स्पर्श व पंखा झलने की परंपरा निभाकर करती हैं। इसके बाद फल और मिठाई का प्रसाद ग्रहण किया जाता है। पारंपरिक मान्यता के अनुसार, इस व्रत से स्त्रियों को अखंड सौभाग्य और पारिवारिक सुख की प्राप्ति होती है।

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