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Up Kiran, Digital Desk: बिहार को लोकतंत्र की जड़ माना जाता है, लेकिन 1990 से 2004 के बीच यहां के चुनावों ने आम जनता की उम्मीदों को बुरी तरह ठेस पहुंचाई। उन वर्षों में चुनाव सिर्फ वोट देने का मौका नहीं बल्कि भय, धमकी और हिंसा का खेल बन गया था। जनता के लिए मतदान एक चुनौती और डर का विषय था। दबंगों और बाहुबालियों की धमक से कई बार वोटर मजबूरन उनके दबाव में वोट डालते थे। इस तरह लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत, यानी जनता की इच्छा, अक्सर दबाई गई।

तबाही के आंकड़े: 641 मौतें और लाखों बुरी यादें

1990 से 2004 के बीच बिहार में चुनावी हिंसा के कारण 641 लोग मारे गए। खास बात ये है कि केवल 2001 के पंचायत चुनावों में 196 लोगों की मौत हुई, जो कि चुनाव के दौरान और उसके बाद की हिंसा का जीता-जागता प्रमाण है। 2004 के लोकसभा चुनाव भी हिंसा से अछूते नहीं रहे, जब 28 लोगों की जान गई। ऐसी घटनाओं ने यह साबित कर दिया कि बिहार में चुनाव सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया नहीं बल्कि खौफ का खेल भी था।

बूथ पर कब्जा और मतदान का खौफ: लोकतंत्र की शर्मनाक कहानी

बिहार में बूथ कैप्चरिंग एक काला व्यापार बन चुका था। यह समस्या पहली बार 1927 के जिला बोर्ड चुनावों में सामने आई थी, लेकिन धीरे-धीरे यह अपराधियों के हाथों में चला गया। जो कभी बूथ लूट को एक ‘धंधा’ समझते थे, वे खुद चुनाव लड़ने लगे। इस कुप्रथा ने राजनीतिक व्यवस्था की विश्वसनीयता को गहरा आघात पहुंचाया। बूथ पर कब्जा और मतदान प्रभावित करने के लिए हिंसा आम बात हो गई थी।

चुनाव रद्द होना आम: पटना समेत कई इलाकों में चुनाव बाधित

1990 और 2000 के दशक में बिहार के कई चुनाव रद्द हो गए। खासकर पटना में 1991 और 1998 के लोकसभा चुनावों को दो बार रोकना पड़ा। यह चुनाव आयोग के लिए बड़ी चुनौती थी, लेकिन जब मतदान निष्पक्ष नहीं रहता तो चुनाव रद्द करना ही आखिरी विकल्प था। चुनाव आयोग के रिपोर्टों में कई बार ऐसी बातें सामने आईं जिनसे पता चलता है कि मतदाता तक अपनी पसंद पहुंचाने से वंचित थे।

भयावह सच: 1998 के चुनाव में नेता ही थे बूथ कब्जा करने वाले

1998 के लोकसभा चुनावों के दौरान दो दर्जन विधायक और मंत्री बूथ कैप्चरिंग करते पकड़े गए। उस चुनाव में 4,995 बूथों पर पुनर्मतदान हुआ, जो कि भारत के चुनाव इतिहास में एक अनोखा रिकॉर्ड है। इस संख्या की तुलना करें 1952 के चुनाव से, जब सिर्फ 26 बूथों पर पुनर्मतदान हुआ था। इस दौर में बूथ कैप्चरिंग का खेल इतना संगठित था कि वह पूरी प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा था।

बदलाव की शुरुआत: 2005 के बाद चुनावों में आई शांति

2005 के बाद बिहार में चुनावी हिंसा में धीरे-धीरे कमी आई। 2009 और 2014 के लोकसभा चुनावों में कुल आठ लोगों की मौत हुई, जो पहले की तुलना में बहुत कम था। 2015 के विधानसभा चुनावों में एक भी मौत नहीं हुई। अब बूथ कब्जा और हिंसा की घटनाएं लगभग खत्म हो गई हैं। बाहुबालियों का राजनीतिक प्रभाव कमजोर हुआ और चुनाव प्रक्रिया अधिक पारदर्शी बन गई। जनता भी अपने जनप्रतिनिधि को निर्भय होकर चुन पा रही है।

लोकतंत्र की जीत: जनता ने पाया हक़ और आवाज़

बीते काले दौर से निकलकर बिहार ने लोकतंत्र को मजबूत किया है। जो दौर जनता के लिए डर और दबाव लेकर आया था, अब उसका अंत हो चुका है। आज बिहार में मतदाता स्वतंत्रता के साथ वोट देते हैं। यह बदलाव सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक जागरूकता और प्रशासन की भी बड़ी जीत है। अब बिहार की जनता लोकतंत्र की सच्ची ताकत बनने लगी है।

क्या आप जानते हैं?
बिहार में 1995 के विधानसभा चुनावों में 1,668 बूथों पर पुनर्मतदान हुआ था, जबकि 2000 में ये संख्या 1,420 थी। इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि किस तरह चुनाव प्रक्रिया पर खतरनाक कब्जा था।