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Up Kiran, Digital Desk: अक्सर एक दूसरे के खिलाफ रहने वाले भारत, चीन और पाकिस्तान एक बार फिर एक मुद्दे पर साथ आ गए हैं. इस बार वजह कोई व्यापारिक विवाद नहीं, बल्कि अफगानिस्तान की धरती पर अपनी ताकत दिखाने की कोशिश है. मामला डोनाल्ड ट्रंप के उस बयान से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने अफगानिस्तान का बगराम एयरबेस वापस हासिल करने की इच्छा जताई थी. लेकिन इस बार तालिबान के साथ-साथ इन तीनों पड़ोसी देशों ने भी साफ कह दिया है कि उन्हें अफगान धरती पर किसी भी विदेशी सैन्य अड्डे की मौजूदगी मंजूर नहीं है.

यह पूरा मामला मॉस्को में हुई 'मॉस्को फॉर्मेट' की सातवीं बैठक के दौरान सामने आया. इस बैठक में भारत, रूस, चीन, ईरान, पाकिस्तान और मध्य एशिया के कई देश शामिल थे. बैठक का मुख्य एजेंडा तो अफगानिस्तान का विकास और शांति था, लेकिन जब विदेशी सैन्य दखल की बात आई तो सभी देशों ने एक सुर में इसका विरोध किया. रूस के विदेश मंत्रालय द्वारा जारी एक संयुक्त बयान में कहा गया, "अफगानिस्तान या उसके पड़ोसी देशों में किसी भी तरह के विदेशी सैन्य ठिकाने बनाने की कोशिश अस्वीकार्य है, क्योंकि इससे इलाके की शांति और स्थिरता को कोई फायदा नहीं होगा."

आखिर इतना क्यों खास है बगराम एयरबेस?

बगराम एयरबेस अफगानिस्तान के परवान प्रांत में स्थित है और यह लंबे समय तक इस क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य अभियानों का केंद्र रहा है. सोवियत संघ के समय में बना यह एयरबेस बाद में अमेरिका का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा बन गया. 2021 में अमेरिकी सेना की वापसी के बाद इस पर तालिबान का कब्जा हो गया. अब पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसकी सामरिक अहमियत को देखते हुए इसे वापस लेने की बात कही है.

सामरिक महत्व: बगराम की भौगोलिक स्थिति इसे बेहद खास बनाती है. यहां से चीन की परमाणु गतिविधियों पर नजर रखी जा सकती है, क्योंकि यह चीन की परमाणु साइटों से लगभग 92 किलोमीटर ही दूर है. इसके अलावा, बगराम के लंबे रनवे बड़े-बड़े सैन्य विमानों को उतारने और रसद पहुंचाने के लिए बहुत अहम हैं.

क्षेत्रीय समीकरण: बगराम एयरबेस पर नियंत्रण का मतलब सिर्फ अफगानिस्तान पर नजर रखना नहीं, बल्कि पूरे मध्य एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाना भी है. भारत हमेशा से ही अफगान धरती पर विदेशी सैन्य अड्डों का विरोध करता रहा है, क्योंकि उसे लगता है कि इससे पड़ोस में बाहरी दखलअंदाजी बढ़ सकती है और क्षेत्र की शांति भंग हो सकती है.

वहीं, चीन भी 'बेल्ट एंड रोड' जैसी पहलों के जरिए इस क्षेत्र में अपना प्रभाव लगातार बढ़ा रहा है. विशेषज्ञों का मानना ​​है कि अगर अमेरिका यहां मौजूद नहीं रहता, तो चीन को अफगानिस्तान में अपनी पैठ बनाने का मौका मिल जाएगा. इससे वह न केवल अफगानिस्तान के कीमती खनिज संसाधनों तक पहुंच बना सकता है, बल्कि इस इलाके में एक बड़ी ताकत के रूप में भी उभर सकता है. इसी वजह से, अपने आपसी मतभेदों के बावजूद, भारत, चीन और पाकिस्तान इस मुद्दे पर एक साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं.