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Up Kiran Digital Desk: उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की जमीनी सच्चाई एक बार फिर सामने आ गई है। एक फौजी पिता, जो सीमा पर देश की रक्षा करता है, अपने छोटे से बेटे को स्थानीय अस्पतालों की लचर व्यवस्था और एंबुलेंस सेवा की सुस्ती के कारण नहीं बचा पाया। यह सिर्फ एक परिवार की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की हार है, जिसने समय पर इलाज का भरोसा तोड़ दिया।

जंग सरहद पर नहीं, घर में हार गए दिनेश

चमोली जिले के चिडंगा गांव के रहने वाले और वर्तमान में जम्मू-कश्मीर में तैनात भारतीय सेना के जवान दिनेश चंद्र के लिए 10 जुलाई की रात कभी न मिटने वाला दर्द छोड़ गई। उनके डेढ़ साल के बेटे शुभांशु की तबीयत अचानक बिगड़ी, लेकिन स्थानीय अस्पतालों की आपाधापी और जिम्मेदारी से बचते सिस्टम ने उस मासूम की सांसें छीन लीं।

परिवार ने शुभांशु को पहले ग्वालदम ले जाया, फिर बैजनाथ और बागेश्वर अस्पताल होते हुए हल्द्वानी रेफर कर दिया गया। इस दौरान न इलाज मिला, न समय पर एंबुलेंस। हर जगह से उन्हें सिर्फ एक जवाब मिला—"यहां से हायर सेंटर ले जाइए।"

एंबुलेंस की राह देखता मासूम, प्रशासन की चुप्पी

बागेश्वर जिला अस्पताल में हालत बिगड़ने पर जब परिजनों ने 108 सेवा को कॉल किया तो एक घंटे तक सिर्फ इंतज़ार मिला। जब एंबुलेंस नहीं आई, तो पिता ने जिलाधिकारी को फोन किया। तब जाकर रात 9:30 बजे एक वाहन मिला, लेकिन तब तक शुभांशु की हालत इतनी बिगड़ चुकी थी कि हल्द्वानी पहुंचने से पहले ही उसकी मौत हो गई।

सवाल वही, जवाब कहीं नहीं

यह हादसा उत्तराखंड की पहाड़ी ज़िंदगी और सरकारी व्यवस्थाओं के उस क्रूर सच को उजागर करता है, जहां ज़िंदगी और मौत के बीच फंसे लोगों के लिए समय पर चिकित्सा सुविधाएं अब भी एक सपना हैं। शुभांशु के मामले में जो सवाल उठते हैं, वे सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि पूरे स्वास्थ्य तंत्र की नाकामी की तस्वीर पेश करते हैं:

क्या अब भी हमारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में आपातकालीन इलाज देने की क्षमता नहीं है?

क्या 108 सेवा की भरोसेमंद छवि सिर्फ कागज़ों पर रह गई है?

एक फौजी का बच्चा एंबुलेंस के इंतजार में दम तोड़ देता है, तो आम नागरिक की उम्मीद किस पर टिके?

क्या केवल जिलाधिकारी के निर्देश पर ही सिस्टम हरकत में आता है?

एक पिता की पुकार, व्यवस्था से टकराता दर्द

बेटे के अंतिम संस्कार के बाद दिनेश चंद्र ने सोशल मीडिया पर जो वीडियो साझा किया, वह महज़ एक भावुक बयान नहीं, बल्कि व्यवस्था के खिलाफ एक ज़िंदा दस्तावेज़ है। उन्होंने सवाल उठाया—“क्या देश की सेवा करने वाले सैनिक को इतना भी हक नहीं कि उसके अपने को वक्त पर इलाज मिल सके?”