Mother’s Day special: जीवन निर्मात्री है मां

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मां ही जन्मदात्री और जीवन निर्मात्री है। यदि उसे पूरा जीवन भी समर्पित कर दिया जाए तो भी मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। संतान के लालन-पालन के लिए हर दुख का सामना करने वाली मां के साथ बिताये दिन गमारे मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं। भारतीय संस्कृति में मां के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा रही है। मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती।

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मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया में मां न केवल अपने बच्चों को सहेजती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। सभी प्रकार के प्रेम का आदि उद्गम स्थल मातृत्व है और प्रेम के सभी रूप इसी मातृत्व में समाहित हो जाते हैं। प्रेम गहन एवं अपूर्व अनुभूति है, पर शिशु के प्रति मां का प्रेम परमानंद की अनुभूति है।

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‘मां’ के स्मरण मात्र से ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है, हृदय में भावनाओं का अनहद ज्वार स्वतः उमड़ पड़ता है । ‘मां’ शब्द वह अमोघ मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही हर पीड़ा का नाश हो जाता है। ‘मां’ की ममता और उसके आंचल की महिमा को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। संतान अपनी मां से ही संस्कार पाता है। संस्कार के साथ-साथ शक्ति भी मां ही देती है। इसलिए मां को शक्ति का रूप माना गया है। वेदों में मां को सर्वप्रथम पूजनीय कहा गया है। श्रीमद् भगवद् पुराणके अनुसार माता की सेवा से मिला आशीष सात जन्मों के कष्टों व पापों को दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है।

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‘मां’ शब्द में प्रेम की समग्रता निहित है। अणु-परमाणुओं को संघटित करके अनगिनत नक्षत्रों, लोक-लोकान्तरों, देव-दनुज-मनुज तथा कोटि-कोटि जीव प्रजातियों को मां ने ही जन्म दिया है। मां ही प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम का यह भाव सभी मादा जीवों में देखने को मिलता है। अपने बच्चों के लिए भोजन न मिलने पर हवासिल (पेलिकन) नाम का मादा पक्षी अपना पेट चीर कर अपने बच्चों को अपना रक्त-मांस खिला-पिला देती है। पुराणों में देवताओं को 4 या 8 हाथ दिये गए किन्तु देवियों को 108 हाथ दिये गए हैं।

मां प्रेम, करुणा और ममता का पर्याय है। मां जन्मदात्री ही नहीं जीवन निर्मात्री भी है। मां धरती पर जीवन के विकास का आधार है। मां ने ही अपने हाथों से इस दुनिया का ताना-बाना बुना है। सभ्यता के विकास क्रम में आदिमकाल से लेकर आधुनिककाल तक इंसानों के आकार-प्रकार में, रहन-सहन में, सोच-विचार, मस्तिष्क में लगातार बदलाव हुए; लेकिन मातृत्व अक्ष्क्षुण रहा । मां कभी नहीं बदली। मां को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

सच तो यह है कि मां विधाता ही है। परमात्मा किसी को नजर आये न आए मां हर किसी को हर जगह नजर आती है। कहीं अण्डे सेती, तो कहीं अपने शावक को दुलारती हुई नजर आती है। मां भाव; प्रेम और वात्सल्य का प्रतिरूप है। मां की भूमिका प्रथम गुरु के रूप में अपनी संतानों के भविष्य निर्माण में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। मां कभी लोरियों में, कभी झिड़कियों में, कभी प्यार से तो कभी दुलार से बालमन में भावी जीवन के बीज बोती है।

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