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पवन सिंह
धर्म का नफरत से बहुत पुराना रिश्ता है...आज तक कोई भी धर्म आदमी में "आदमियत" नहीं जगा सका लेकिन सियारों ने धर्म के रास्ते आदमियों का शिकार बड़ी धूर्तता से कर डाला...!! गजब तो ये है कि धर्म ढ़ोता हुआ आदमी कब अपने सिरहाने से अपनी और पूरे समाज और मुल्क के खुशनुमा माहौल को ही खा जाता है उसे पता ही नहीं चलता...चालाक लोमड़ियां धर्म को और जहरीला बनाने के लिए उसमें फर्जी राष्ट्रवाद का तड़का लगाकर ऐसा मानसिक दिवालियापन पैदा कर देती हैं कि इससे हिप्नोटाइज आदमी को अगर आप बताने की कोशिश करें कि वह खुद को जलाने के रास्ते पर है, तो वह आपका ही हाथ झटक देगा। कमोबेश अपने देश में भी ऐसा ही हो रहा है और खासकर गोबरपट्टी क्षेत्रों में। पानी धीरे-धीरे कंधों से ऊपर चढ़ रहा है और लोग आचमन की मुद्रा में हैं।
आपने RTI ACT का नाम सुना होगा। आम आदमी के हाथ में पूर्ववर्ती सरकार ने यह एक सशक्त हथियार थमाया था लेकिन वर्तमान में धार्मिक, प्रखर राष्ट्रवादी, संस्कृति की संवाहक और भ्रष्टाचार पर ज़ीरो ट्रार्लेंस वाली सरकार ने इस एक्ट के सारे वो दांत तोड़ डाले जो डसने वाले थे। सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा कि RTI ACT अब भोथरा हो चुका है। विडंबना देखिए, हम सब उस पार्टी को आज भी गाली दे रहे हैं जो सत्ता में थी और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बावजूद सशक्त RTI कानून लाई थी..!! चीन ने नार्थ ईस्ट में क्या खेल किया आरटीआई लागू नहीं होती, पीएम केयर फंड पर आरटीआई लागू नहीं होती, रफेल खरीदी पर आरटीआई लागू नहीं होती....यहा़ं तक कि अडानी भी आरटीआई एक्ट में नहीं आते....बैंकों का कौन कौन कितना पैसा डकार गया कोई जानकारी नहीं, ब्लैक मनी पर कोई जानकारी नहीं....हम सबने अपने सारे लोकतांत्रिक अधिकार धीरे-धीरे "जाति और धर्म" के हवाले कर दिये हैं। निर्भया कांड का विरोध करते हुए हजारों युवाओं की फौज पार्लियामेंट तक पहुंच गई थी और वहां लगे लैंप पोस्टों पर चढ़ गई थी...ये हिमाकत अब करके देखो...लैंप पोस्टों का सत्ता सही इस्तेमाल कर देगी..। आरटीआई तो अब दूर की कौड़ी हो गई अब तो हालात ये हैं कि मीडिया खुद सरकार के घरों में फर्श पर पोंछा लगा रहा है।
अंग्रेजी हुकूमत ने साल 1923 में शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 बनाया गया था। मुल्क आजाद हुआ लेकिन एक्ट जिंदा रहा और सरकारें एक्ट की धारा 5 और 6 के प्रावधानों का सहारा लेकर सूचनाएं छिपाती रहीं। 1975 में उत्तर प्रदेश सरकार बनाम राजनारायण मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नौकरशाही के सार्वजनिक कामों का ब्योरा जनता के देने की व्यवस्था की थी। 1989 में वीपी सिंह ने सूचना का अधिकार कानून बनाने का वादा किया लेकिन सरकार ही गिर गई। मामला फिर आगे बढ़ा और वर्ष 1997 में संयुक्त मोर्चा की सरकार ने एचडी शौरी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित बनाई। कमेटी ने सूचना के अधिकार को लेकर एक ड्राफ्ट पेश किया। मामला आगे बढ़ा और वर्ष 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान सूचना की स्वतंत्रता विधेयक पास किया गया और जनवरी 2003 में इसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिली लेकिन यह लागू न हो सका। इसके बाद 2004 की यूपीए सरकार ने कमर कसी और 12, मई 2005 को सूचना का अधिकार अधिनियम संसद से पास कियाऔर 15 जून, 2005 को राष्ट्रपति ने इसे मंजूरी दी। इस प्रकार 12 अक्टूबर, 2005 को यह कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में यह एक्ट लागू हुआ।
देश की सबसे ज्यादा पारदर्शी और ईमानदार सरकार 2014 में सत्ता में आई। सरकार ने RTI एक्ट में बदलाव कर डाला।
अनेक आरटीआई एक्टिविस्ट और विपक्ष का कहना है कि नए संशोधनों के बाद आरटीआई उतना ताकतवर नहीं रह गया है, जितना पहले था। बदलाव के बाद सूचना के अधिकार के संस्थागत ढांचे पर अब सरकार का नियंत्रण हो चुका है। जबकि पहले ये स्वतंत्र रूप से काम कर रही थी..। हालांकि मौजूदा सरकार का कहना है कि सूचना के अधिकार की ताकतों को टच नहीं किया गया है केवल कमीशन के ढांचे में रद्दोबदल किया गया है इससे सूचना के अधिकार की ताकत कम नहीं हुई है।
जबकि अब सरकार ने सूचना अधिकारियों के वेतन के साथ उनके कार्यकाल के निर्धारण तक को अपने हाथ में ले लिया है। पहले मुख्य सूचना आयुक्तों के साथ दूसरे सूचना आयुक्तों का कार्यकाल 5 साल निर्धारित होता था। अब इसे बदल दिया गया है और सूचना आयुक्तों के कार्यकाल का निर्धारण अब सरकार की कृपा पर है। बदलाव से पहले तक मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के बराबर होता था और इन सबका वेतन सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर होता था। सूचना के अधिकार कानून में बदलाव के बाद सरकार नए सिरे से वेतन का निर्धारण कर सकती है यानी कि सरकार सूचना आयुक्तों का वेतन कम भी कर सकती है। अब नियुक्ति के सारे अधिकार केंद्र सरकार ने अपने हाथ में ले लिए हैं। नियुक्ति और सेवा शर्तों का निर्धारण अब केंद्र सरकार करेगी। केंद्र के साथ राज्यों के मुख्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भी केंद्र सरकार ही करेगी। केंद्र सरकार ने इस एक्ट में बदलाव कर कठपुतलियां नचाने का खेल खेला है क्योंकि सारे आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर उनकी सेवा शर्तों का निर्धारण केंद्र के हाथ में होगा। अब आयउक्तगण जनता की बजाए अपनी नौकरी बचाने में लगेंगे, न कि ईमानदारी का झंडारोहण करने में।
एक्ट में बदलाव के साथ ही मुख्य सूचना आयुक्त से लेकर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर उन्हें हटाने का अधिकार तक भी केंद्र सरकार के पास चला गया है जबकि ओरिजनल बिल में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त को हटाने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति के पास था। राष्ट्रपति भी उन्हें तभी हटा सकते थे, जब सुप्रीम कोर्ट की जांच में कोई आयुक्त दोषी पाया जाता हो। राज्यों के मामले में मुख्य सूचना आयुक्त के साथ दूसरे आयुक्तों को हटाने का अधिकार राज्यपाल के पास था। अब ये सब बदल गया है…
फिलहाल, आप आजाद हैं कि आपकी ही आवाज उठाने वाले लोगों को आप गालियां दें। धर्म, जाति, फर्ज़ी राष्ट्रवाद और संस्कृति का काकटेल आपके ही नहीं आपकी पीढ़ियों के विनाश का कारण बनेगा।