सुभाष चन्द्र बोस जून 1921 में ब्रिटेन से भारत वापस आ गये। जिस जहाज से सुभाष भारत आ रहे थे संयोग से उसी जहाज में रवीन्द्र नाथ टैगोर भी थे। जहाज में बातचीत के दौरान टैगोर ने सुभाष को भारत में गांधी से मुलाकात करने की सलाह दी थी। 16 जुलाई 1921 को बम्बई पहुँचने पर सुभाष ने गांधी जी से मुलाकात की। सुभाष गांधी के आन्दोलन की रणनीति और कार्यक्रमों की स्पष्ट जानकारी चाहते थे। सुभाष ने आन्दोलन से संबंधित अनेक सवाल किये। गांधी जी ने उनके सभी सवालों का जबाब दिया, लेकिन सुभाष सन्तुष्ट न हो सके।
महात्मा गांधी से मिलने के बाद सुभाष तुरन्त देशबन्धु चितरंजन दास से मिलने कलकत्ता गये। कुछ समय इंतजार करने के बाद इनकी भेंट देशबन्धु से हुई। सुभाष ने देशबन्धु से मिलकर बहुत प्रभावित हुए। हालाँकि बाद में सुभाष ने अपना नेता महात्मा गांधी को ही माना।
1921 में देश असहयोग आंदोलन की लहर थी। वकील न्यायिक व्यवस्था का बहिष्कार कर रहे थे, छात्रों ने विद्यालयों में जाना छोड़ दिया, कांग्रेसी नेताओं ने विधान मंडल की प्रक्रिया में भाग लेना बन्द कर दिया। देशवासियों में राष्ट्र प्रेम की भावना उफान पर थी। ऐसे समय में देशबन्धु ने अपने नये युवा सहयोगी को बंगाल प्रान्त की कांग्रेस कमेटी तथा राष्ट्रीय सेवा दल का प्रचार प्रधान बनाने के साथ ही नये खुले नेशनल कॉलेज का प्रिंसीपल भी नियुक्त कर दिया। सुभाष ने अपनी योग्यता और लगन से इतने सारे दायित्वों को कुशलता पूर्वक निभाया।
इसी दौरान बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति ने सारे अधिकार अध्यक्ष देशबन्धु चितरंजन दास को सौंप दिये। देशबन्धु ने सुभाष चंद्र बोस को आन्दोलन का मुखिया बनाया। सुभाष ने बंगाल में आन्दोलन को अभूतपूर्व नेतृत्व प्रदान किया। 1921 के दूसरे हफ्ते में देशबन्धु और सुभाष चन्द्र के साथ अन्य नेताओं को भी कैद कर लिया गया। उन्हें बाद में छह महीने की सजा हुई। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेते हुये ये सुभाष चन्द्र बोस की पहली गिरफ्तारी थी। इन्हें कलकत्ता की अलीपुर सेंट्रल जेल में रखा गया।जेल में देशबन्धु के सानिध्य में रहकर सुभाष ने नेतृत्व का गुण सीखा।