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Up Kiran, Digital Desk: राजधानी पटना में अपराध पर नियंत्रण और प्रशासनिक ढांचे को मजबूती देने के उद्देश्य से पुलिस महकमा एक बड़ी कवायद में जुटा है। इस दिशा में एसएसपी पटना के अनुरोध पर बिहार पुलिस मुख्यालय ने 11 पुलिस इंस्पेक्टरों को राजधानी में तैनाती के लिए बुलाया है। यह कदम कागज पर भले ही सराहनीय दिखे, लेकिन जब इन अधिकारियों के अतीत की फाइलें पलटी गईं, तो कई चौंकाने वाले खुलासे सामने आए।
इनमें सबसे अधिक सुर्खियों में है पूर्व सदर थाना अध्यक्ष जितेंद्र राणा का नाम, जिनका अतीत विवादों से भरा रहा है और जिनकी कार्यशैली को लेकर पहले भी सवाल खड़े होते रहे हैं।
शराबबंदी पर लापरवाही और उसके नतीजे
जितेंद्र राणा जो कि बांका जिले के मूल निवासी हैं, पूर्णिया में सदर थाना के प्रभारी रह चुके हैं। वर्ष 2020 में उन्होंने अपने क्षेत्र में शराबबंदी कानून के पालन को लेकर एक शपथ पत्र सौंपा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि उनके थाना क्षेत्र में न तो शराब बनती है, न ही उसका भंडारण या तस्करी होती है। लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही थी।
स्थानीय नागरिकों की ओर से मिलती लगातार शिकायतों के बाद मद्य निषेध विभाग की टीम ने पटना से पूर्णिया के हजीरगंज वार्ड नंबर 45 में छापेमारी की। यहां दर्जनों घरों में देसी शराब के अवैध निर्माण का मामला सामने आया। भारी मात्रा में कच्चा माल, जैसे गुड़, स्प्रिट और छोवा बरामद हुआ, जिससे साफ हो गया कि शराब निर्माण की गतिविधियां बड़े स्तर पर संचालित हो रही थीं।
इस कार्रवाई के बाद तत्कालीन आईजी रत्न संजय कटियार ने राणा को निलंबित कर उनके खिलाफ विभागीय जांच शुरू करने का आदेश दिया।
विभागीय जांच में दोषी करार, फिर भी बहाली?
धमदाहा डीएसपी रमेश कुमार को जांच अधिकारी नियुक्त किया गया और उन्होंने तय समय में जांच पूरी कर रिपोर्ट एसपी पूर्णिया को सौंपी। रिपोर्ट में जितेंद्र राणा को शराबबंदी में गंभीर लापरवाही का दोषी माना गया।
इसके बावजूद, बिना विभागीय कार्रवाई की अंतिम रिपोर्ट को पूरी तरह निष्कर्षित किए ही, राणा को निलंबन से मुक्त कर दिया गया। पुलिस मुख्यालय की तरफ से यह दलील दी गई कि उस समय अधिकारी की कमी के चलते उन्हें फिर से सेवा में लिया गया। हालांकि यह सफाई कई सवालों को जन्म देती है, खासकर उस राज्य में जहां शराबबंदी सरकार की प्राथमिकता में शामिल है।
पुलिस प्रशासन की जवाबदेही पर उठे सवाल
यह मामला केवल एक अधिकारी की लापरवाही का नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाता है। जब जांच में दोषी पाए गए एक अधिकारी को फिर से जिम्मेदारी सौंप दी जाती है, तो यह कानून के शासन और पारदर्शिता पर सीधा प्रहार है।
पूर्व एसपी द्वारा दिए गए बयान में कहा गया कि उन्हें एक आवेदन प्राप्त हुआ था जिसे उन्होंने उच्च अधिकारियों को भेजा, जबकि आईजी ने स्पष्ट किया कि पदस्थापन की कमी के चलते यह निर्णय लिया गया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या शराबबंदी जैसे गंभीर मसले को इस प्रकार की “कमी” के नाम पर नजरअंदाज किया जा सकता है?
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