Up kiran,Digital Desk : दिल्ली में नगर निगम (MCD) के 12 वार्डों में हुए उपचुनाव को देखकर शायद आपको लगे कि यह एक छोटा-मोटा स्थानीय चुनाव है, लेकिन असल में यह एक बहुत बड़ी राजनीतिक जंग बन चुका है। यह चुनाव उम्मीदवारों के बीच नहीं, बल्कि दिल्ली की तीन बड़ी पार्टियों—बीजेपी, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस—के सबसे बड़े नेताओं की इज्जत का सवाल बन गया है। रविवार को जो वोट पड़े हैं, उनके नतीजे सिर्फ यह नहीं बताएंगे कि पार्षद कौन बनेगा, बल्कि यह दिल्ली के बड़े नेताओं की पकड़, उनके काम और जनता में उनके भरोसे का सीधा-सीधा आईना होंगे।
क्यों बन गया यह चुनाव इतना बड़ा?
बात दरअसल यह है कि इस चुनाव को सभी पार्टियों ने आम चुनाव की तरह लड़ा है। मुख्यमंत्री से लेकर सभी पार्टियों के प्रदेश अध्यक्षों तक, सबने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इसकी वजह भी साफ है:
- मुख्यमंत्री का पहला टेस्ट: मुख्यमंत्री बनने के बाद यह दिल्ली में पहला चुनाव है, इसलिए नतीजे सीधे उनके काम से जोड़कर देखे जाएंगे।
- नेताओं की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा: बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा के सामने अपनी 9 जीती हुई सीटें बचाने की चुनौती है। वहीं, 'आप' के प्रदेश अध्यक्ष सौरभ भारद्वाज पर दोहरा दबाव है—उन्हें न सिर्फ अपनी पार्टी की 3 सीटें वापस जितनी हैं, बल्कि अपने गढ़ (ग्रेटर कैलाश) में भी पार्टी की लाज बचानी है।
किसके लिए क्या दांव पर है?
इस चुनाव में 12 सीटें इसलिए खाली हुईं क्योंकि यहाँ के पार्षद विधायक या सांसद बन गए। 2022 में इन 12 सीटों में से 9 पर बीजेपी और 3 पर 'आप' जीती थी।
- बीजेपी: उसके लिए यह चुनाव सरकार के कामकाज पर जनता की पहली सीधी राय जैसा है। 9 सीटें बचाने का भारी दबाव है।
- आम आदमी पार्टी (AAP): उसे यह साबित करना है कि दिल्ली में उसकी पकड़ कमजोर नहीं हुई है।
- कांग्रेस: पिछली बार के मुकाबले कांग्रेस इस बार ज़्यादा एक्टिव दिख रही है। वो किसी बड़े चेहरे पर नहीं, बल्कि गली-मोहल्लों के छोटे-छोटे मुद्दों और लोगों की नाराज़गी को अपनी ताकत बनाकर वापसी करने की कोशिश में है।
दिलचस्प बात यह है कि मैदान में कोई भी उम्मीदवार बहुत बड़ा या कद्दावर नेता नहीं है। असली लड़ाई तो पार्टियों के चुनाव निशान और उनके बड़े चेहरों के नाम पर लड़ी जा रही है। अब देखना यह है कि इस प्रतिष्ठा की लड़ाई में दिल्ली की जनता किस पर अपना भरोसा जताती है।
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