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Up Kiran, Digital Desk: भारतीय इतिहास और सनातन धर्म के आसमान पर जब भी ज्ञान और एकता की बात होती है, तो आदि गुरु शंकराचार्य का नाम सबसे पहले चमकता है। वे सिर्फ एक संत या दार्शनिक नहीं थे, बल्कि एक ऐसे युगपुरुष थे जिन्होंने बिखरे हुए सनातन धर्म को फिर से संगठित किया और उसे नई ऊर्जा प्रदान की।

दिव्य जन्म और प्रखर बुद्धि

आदि शंकराचार्य का जन्म केरल के शांत कालड़ी गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके जन्म की कहानी भी अद्भुत है। कहा जाता है कि उनके पिता शिवगुरु और माता आर्यांबा ने संतान प्राप्ति के लिए भगवान शिव की कठोर आराधना की। भोलेनाथ प्रसन्न हुए और दर्शन देकर वर मांगने को कहा। शिवगुरु ने एक गुणी पुत्र का वरदान मांगा। तब भगवान शिव ने उनसे पूछा – तुम्हें एक ऐसा पुत्र चाहिए जो सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) हो लेकिन अल्पायु हो, या ऐसा पुत्र जो दीर्घायु हो पर सामान्य हो? शिवगुरु ने ज्ञान को चुना और अल्पायु सर्वज्ञ पुत्र का वर मांगा। इसी वरदान के फलस्वरूप वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आदि शंकराचार्य का दिव्य जन्म हुआ।

शंकराचार्य बचपन से ही असाधारण प्रतिभा के धनी थे। छोटी सी उम्र में ही उन्हें वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत जैसे गूढ़ ग्रंथ कंठस्थ हो गए थे। वे जितने ज्ञानी थे, उतने ही अपनी माँ के भक्त भी थे। एक कथा के अनुसार, अपनी माँ को स्नान के लिए दूर नदी तक न जाना पड़े, इसके लिए उन्होंने प्रार्थना कर पूर्णा नदी की धारा को ही अपने घर के पास मोड़ दिया था।

धर्म को संगठित करने का बीड़ा: चार मठों की स्थापना

आदि शंकराचार्य ने देखा कि उस समय भारत में सनातन धर्म की अलग-अलग मान्यताएं और पंथ बिखरे हुए थे। इसे एक सूत्र में पिरोने और धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया और देश के चारों कोनों में चार मठों (जिन्हें पीठ या धाम भी कहा जाता है) की स्थापना की। ये चार स्तंभ हैं:

उत्तर में: बद्रीनाथ (ज्योतिर्मठ)

दक्षिण में: श्रृंगेरी (शारदा पीठ)

पूर्व में: पुरी (गोवर्धन पीठ)

पश्चिम में: द्वारका (शारदा पीठ)

आज भी ये मठ सनातन धर्म के सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र केंद्र माने जाते हैं।

ज्ञान की गंगा: ग्रंथों को बनाया सरल

उन्होंने सिर्फ मठ ही स्थापित नहीं किए, बल्कि ज्ञान की धारा को भी आम लोगों तक पहुंचाया। उन्होंने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और भगवद् गीता जैसे सबसे कठिन माने जाने वाले धर्मग्रंथों पर सरल और सारगर्भित भाष्य (टीकाएं) लिखे। उनके इन प्रयासों से वेदों और उपनिषदों का गूढ़ ज्ञान जनसामान्य के लिए भी सुलभ हो गया।

संन्यासियों का संगठन और कुंभ

धर्म की रक्षा और संन्यासियों को एकजुट करने के लिए उन्होंने 'दशनामी संप्रदाय' की भी नींव रखी और संन्यासियों के विभिन्न अखाड़ों को संगठित किया। माना जाता है कि हिंदुओं के महापर्व कुंभ मेले को व्यवस्थित रूप देने और उसे भव्य बनाने में भी आदि शंकराचार्य का विशेष योगदान था।

अद्वैत वेदांत: आत्मा और परमात्मा एक हैं

दर्शन के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान 'अद्वैत वेदांत' का सिद्धांत है। 'अद्वैत' का अर्थ है - दो नहीं, यानी एक। उन्होंने दुनिया को समझाया कि जीवात्मा (हमारी अपनी आत्मा) और परमात्मा (ईश्वर या ब्रह्म) असल में अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही हैं। हम सब उसी एक परम सत्य के अंश हैं, और अज्ञान या माया के कारण खुद को उससे अलग समझते हैं।

मात्र 32 वर्ष की छोटी सी आयु में ही आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म के लिए जो कार्य किए, वे आज भी हमें प्रेरणा देते हैं। उन्होंने न केवल ज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में क्रांति लाई, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी धर्म को संगठित कर उसे नई शक्ति और दिशा प्रदान की।

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