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Up Kiran, Digital Desk: चतरा जिले के एक छोटे से गांव में इंसानियत और सामाजिक मर्यादा पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। गेरुआ गांव के मोहम्मद इरशाद का मामला सामने आने के बाद यह साफ हो गया है कि कुछ शरारती युवकों के मजाक अब मानसिक प्रताड़ना की सीमा पार कर चुके हैं। इस शख्स को अपनी ही "गुमशुदगी" का पंपलेट लेकर पुलिस स्टेशन जाना पड़ा, क्योंकि गांव में दीवार-दुकानों पर उसकी तस्वीर और गुमशुदा बताने वाले पोस्टर चिपकाए गए थे।
खुद को "लापता" देख हैरान हुआ शख्स
मोहम्मद इरशाद ने जब गांव के सार्वजनिक स्थलों पर अपनी तस्वीर वाले पोस्टर देखे, जिनमें उन्हें 5 जुलाई से गायब बताया गया था, तो वे सकते में आ गए। यह हरकत गांव के कुछ युवकों की निकली, जो बीते दो महीने से उन्हें अलग-अलग तरीकों से परेशान कर रहे हैं। एक तरफ दीवारों पर मजाक उड़ाने वाले पोस्टर, तो दूसरी तरफ सड़कों पर पीछा कर पत्थर फेंकने जैसी हरकतें — यह सब अब शुद्ध उत्पीड़न बन चुका है।
हंसी-मजाक के नाम पर उत्पीड़न?
गांवों में अक्सर हल्के-फुल्के मजाक को सामान्य माना जाता है, लेकिन जब यह मजाक किसी की मानसिक स्थिति पर असर डालने लगे, तो समाज को रुककर सोचना चाहिए। इरशाद का कहना है कि जब वे बाजार या नमाज के लिए घर से निकलते हैं, तो पीछे से युवक उन्हें पत्थर मारते हैं, ताने कसते हैं और उपहास उड़ाते हैं। हालात ऐसे हो गए हैं कि उन्होंने खुद को लगभग घर में कैद कर लिया है।
पत्थरबाज़ी और दुर्व्यवहार ने बढ़ाई चिंता
इरशाद की आपबीती यहीं खत्म नहीं होती। उन्होंने बताया कि जब उनकी पत्नी ने इन बदतमीजियों का विरोध किया, तो युवकों ने उसके साथ भी अभद्र व्यवहार किया। गांव के कुछ नामजद युवकों — मोहम्मद आदिल, छोटू, आज़ाद और सैफ — पर आरोप लगाए गए हैं कि वे टोलियों में घूमें और इरशाद को सार्वजनिक रूप से निशाना बनाएं।
कानून व्यवस्था पर उठते सवाल
इस मामले ने स्थानीय पुलिस और प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या ग्रामीण इलाकों में ऐसे मामलों को मजाक समझकर टाल दिया जाता है? या फिर पीड़ित को बार-बार थाने आकर खुद को बचाने की गुहार लगानी पड़ती है? इरशाद ने थाने में आवेदन देकर साफ तौर पर कहा कि वह मजनू या पागल नहीं है, और उसे बेवजह पत्थर मारने से बचाया जाए।
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