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मुंबई के घाटकोपर इलाके में स्थित एक सोसाइटी में मांसाहार को लेकर उपजा विवाद अब सांस्कृतिक और भाषाई मुद्दा बनता जा रहा है। यह विवाद तब चर्चा में आया जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) ने दावा किया कि सोसायटी में रहने वाले मराठी परिवारों के साथ सिर्फ इस वजह से भेदभाव किया जा रहा है क्योंकि वे मांसाहारी भोजन करते हैं।

MNS का आरोप: ‘मराठी लोग मटन खाते हैं इसलिए गंदे कहलाए?’

MNS के अनुसार, श्री शंभू दर्शन नाम की इस सोसाइटी में रहने वाले राम रिंगे नामक एक मराठी निवासी को अपमानजनक शब्दों का सामना करना पड़ा। आरोप है कि सोसाइटी के ही एक सदस्य, जिनकी पहचान ‘शाह’ नाम से हुई है, ने राम रिंगे से कहा, “तुम मराठी लोग गंदे हो... मछली-मटन खाते हो।”

बताया गया है कि इस सोसाइटी में कुल चार मराठी परिवार रहते हैं, जबकि अन्य निवासी मुख्य रूप से गुजराती और मारवाड़ी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इस घटनाक्रम ने मराठी बनाम गैर-मराठी विवाद को फिर से सतह पर ला दिया है।

MNS का विरोध प्रदर्शन: 'मराठी आत्मसम्मान के साथ खिलवाड़ नहीं सहेंगे'

घटना के सामने आने के बाद MNS के कार्यकर्ता रात को सोसाइटी पहुंच गए और उन्होंने वहां मौजूद निवासियों को सख्त लहजे में चेतावनी दी। MNS ने कहा, “मराठी लोगों का अपमान किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। अगर महाराष्ट्र में रहकर कारोबार करना है, तो मराठी लोगों का सम्मान करना होगा। सोसाइटी में रहने वाले चार मराठी परिवार भले ही अल्पसंख्यक हों, लेकिन अगर उन्हें डराया-धमकाया गया तो हम 4 हजार लोग सोसाइटी के बाहर खड़े कर देंगे।”

MNS की कामगार सेना के उपाध्यक्ष राज पार्टे ने इस मामले पर सोशल मीडिया के जरिए एक वीडियो जारी किया। वीडियो में सोसाइटी के कुछ लोग यह कहते नजर आए कि यहां मांसाहार पर कोई औपचारिक पाबंदी नहीं है, और सभी लोगों को अपनी पसंद के अनुसार खाना खाने की आज़ादी है।

मामला सिर्फ भोजन का नहीं, पहचान का है

इस विवाद ने सिर्फ एक खानपान की आदत को लेकर नहीं, बल्कि एक बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श को जन्म दे दिया है। महाराष्ट्र जैसे विविधता भरे राज्य में जहां अलग-अलग समुदाय एक साथ रहते हैं, वहां किसी भी व्यक्ति को उसकी भाषा, जाति या खानपान के आधार पर भेदभाव झेलना पड़े, यह एक चिंताजनक स्थिति है।

आगे की राह: समाधान या टकराव?

यह मामला प्रशासन की नज़रों में भी आ चुका है, हालांकि अब तक कोई औपचारिक शिकायत दर्ज नहीं की गई है। लेकिन जिस तरह से राजनैतिक पार्टियां इस मुद्दे पर सक्रिय हुई हैं, यह साफ है कि बात अब निजी स्तर से आगे बढ़ चुकी है।

सवाल यह है कि क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहां रहने और खाने की आज़ादी पर भी सांप्रदायिक या भाषाई पहचान हावी हो जाएगी? या फिर यह एक मौका हो सकता है, जहां समुदायों को मिल-बैठकर आपसी समझ और सम्मान के साथ रास्ता निकालना चाहिए?

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