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Up Kiran, Digital Desk: सीवान (बिहार) की राजनीति एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ी है, जहां सिर्फ चुनावी विकास से ज्यादा नाम और निशान की बात हो रही है। लालू यादव की पार्टी आरजेडी ने दिवंगत शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा शहाब को चुनावी मैदान में उतारकर न सिर्फ पुराने राजनीतिक समीकरणों को ताजा किया है, बल्कि सीवान की राजनीति में नई हलचल भी पैदा कर दी है। यह महज़ एक उम्मीदवार की एंट्री नहीं, बल्कि उस विरासत की वापसी है जिसने कई सालों तक सीवान की राजनीति पर राज किया था।

ओसामा शहाब की एंट्री से सीवान में मुस्लिम-यादव (MY), दलित, राजपूत और अतिपिछड़ा वोट बैंक फिर से केंद्र में आ गया है। 2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने यहां जीत हासिल की थी, लेकिन तब एनडीए का वोट बंटने के कारण इसका फायदा हुआ था। इस बार हालात कुछ अलग हैं। एलजेपी (रामविलास) की एनडीए में वापसी ने इस सीट को पहले से कहीं ज्यादा कड़ा मुकाबला बना दिया है। अब यहां वोटों का बिखराव कम हो चुका है, और मुकाबला सीधा टकराव में बदल चुका है।

क्या ओसामा के लिए शहाबुद्दीन का नाम बनेगा मुश्किल?

सीवान में शहाबुद्दीन का नाम अब भी दोहरी भावनाओं के साथ जुड़ा हुआ है। एक ओर जहां लोग उनकी तहरीक और खौफ को याद करते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग अब भी उन्हें व्यवस्था और सुरक्षा का प्रतीक मानते हैं। ओसामा के सामने चुनौती है, क्योंकि पुराने लोग आज भी उस दौर को ताजा याद करते हैं, जब सीवान का नाम अपराध और खौफ की वजह से सुर्खियों में था। युवा पीढ़ी में ओसामा के लिए बदलाव और नई राजनीति का ख्वाब है, लेकिन बुजुर्गों के लिए यह नाम एक काली याद के रूप में कायम है।

शहाबुद्दीन की छाया इस चुनाव में ओसामा के साथ बनी रहेगी, और यह देखना दिलचस्प होगा कि युवा वोटर उनके नेतृत्व को स्वीकार करते हैं या नहीं। शहाबुद्दीन पर लगे संगीन आरोप, जैसे चंद्रशेखर प्रसाद की हत्या, पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या, और तेजाब हमलों की घटनाएं, आज भी सीवान की राजनीतिक यादों में ताजा हैं। इन सबका असर ओसामा की चुनावी रणनीति पर गहरा पड़ सकता है।

सीवान के सियासी समीकरण: जातीय वोट बैंक का खेल

सीवान का चुनाव अब जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूम रहा है। मुस्लिम और यादव वोट, जो हमेशा आरजेडी के पारंपरिक आधार रहे हैं, इस बार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वहीं, राजपूत और बनिया वोट एनडीए के पक्ष में अधिक माने जाते हैं। दलित और अतिपिछड़ा वोट इस बार अपने भविष्य के लिए नई दिशा तय करने की स्थिति में हैं। ओसामा के पिता की लोकप्रियता और विवाद दोनों इस चुनाव में ध्रुवीकरण की ओर ले जा सकते हैं। यह चुनाव सिर्फ सीट की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह देखने का भी सवाल है कि सीवान की जनता क्या विरासत को चुनती है, बदलाव की ओर बढ़ती है या फिर डर और आस्था के बीच संतुलन बनाती है।

सीवान का यह चुनाव अब सिर्फ राजनीतिक मुकाबला नहीं, बल्कि एक सामाजिक इम्तिहान बन गया है। इस चुनाव के बाद यह साफ हो जाएगा कि क्या यहां की जनता शहाबुद्दीन की पुरानी राजनीति को नकारकर बदलाव की ओर बढ़ेगी या फिर वही पुराना ढांचा कायम रहेगा।