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(पवन सिंह)

उत्तर प्रदेश को कुछ वर्षों पूर्व मोस्ट फिल्म फ्रेडली स्टेट का एवार्ड मिला था। यहां की खूबसूरत फिल्म लोकेशन्स और ऐतिहासिक विरासतें व टाइम पीरियड की फिल्मों के लिए बहुत ही सजीव लोकेशन्स हुआ करतीं हैं जो भाषाई फिल्म निर्माताओं व निर्देशकों सहित हिंदी फिल्मों के कारपोरेट जगत को यूपी में फिल्म शूटआउट के लिए आकर्षित करती रही हैं। यही नहीं, फिल्म सब्सिडी के लिए सबसे आसान शर्तों के कारण विगत कुछ वर्षों में यूपी में फिल्म की खूब शूटिंग हुईं लेकिन विगत तीन सालों में उत्तर प्रदेश से फिल्म निर्माताओं का यूपी से मोह भंग हुआ है। सूचना विभाग में पूरे साल बजट रोके जाने और फिर से ड्रापर से पोलियो की दवा की तरह दो बूंद गिरा कर पल्थी मार योगा करने की नीति ने माननीय मुख्यमंत्री की प्रचार-प्रसार योजनाओं में पलीता लगा दिया है। 

शासन स्तर से बजट की अटका-अटकी के कारण फिल्मों को सब्सिडी न के बराबर मिल रही है। सैकड़ों स्क्रिप्ट बिल और आडिट रिपोर्ट के साथ विभाग में जमा हैं लेकिन सब्सिडी नहीं मिल रही...रेलवे के वेटिंग टिकट और जरनल डिब्बों जैसा हाल है..अरे जब जगह यानी बजट ही नहीं है तो स्क्रिप्ट काहे बटोर रहे हो? फिल्म बंधु का एक बाबू है वो अलग ही टशन में रहता है। भोजपुरी फिल्मों में काम करता है और पूरी मुंबई में बता रखा है कि साहेब बहादुर डिप्टी डायरेक्टर हैं....पिछले दिनों मुंबई के चांदीवली स्टूडियो में मैं कुछ बड़े टीवी आर्टिस्ट के साथ शाम गुजार रहा था...तो बाबू से डिप्टी डायरेक्टर बने कलाकार पर चर्चा हुई तो मेरा माथा ठनका....!! ये महोदय कब डिप्टी डायरेक्टर बन गये पता ही नहीं चला..!!!! फिल्म बंधु भी बजट की मार से सटका हुआ है और अब सब्सिडी चाहने वालों के फोन भी आने बंद हो गये हैं...अजटम-बजटम की खो-खो खेल रहे शासन स्तर के अधिकारियों के कारण धीरे-धीरे सब कुछ स्वाहा हो रहा है। 

कहते हैं रियासतें हों या हो पूरा मुल्क या फिर खुद एक आदमी ही क्यों न हो...अपनी इमेज बनाने में सालों-साल गुजर जाते हैं।‌ आदमी की पूरी उम्र गुज़र जाती है लेकिन उसे तबाह होने में वक्त नहीं लगता। उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के तहत कार्यरत फिल्म बंधु के साथ ठीक ऐसा ही हो रहा है जो राज्य कभी मोस्ट फिल्म फ्रेडली के एवार्ड से गौरवान्वित हुआ करता था, वहां से फिल्म प्रोड्यूसर्स गायब हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में भाषाई फिल्मों से लेकर कारपोरेट हिंदी फिल्मों की शूटिंग की कमी के चलते स्थानीय कलाकारों को भी काम नहीं मिला रहा है, आज वे सब के सब लगभग खाली बैठे हैं। 

हकीकत यह है कि माननीय मुख्यमंत्री द्वारा उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को प्रचार प्रसार के लिए पर्याप्त बजट उपलब्ध कराया जाता है लेकिन शासन स्तर पर उसे रिलीज न किये जाने के कारण फिल्मों को समय पर सब्सिडी नहीं मिल पाती। हालात यह हैं कि विगत दो सालों में मात्र 12 से 20 फिल्मों को सब्सिडी दी गई,  लेकिन किसी को भी सब्सिडी नहीं मिली...!!!   कोई भी पत्रकार साथी एक आरटीआई लगा कर इस संदर्भ में व्यापक जानकारी हासिल कर सकते हैं। शासन स्तर से नियमित बजट न मिलने के कारण अब अधिकांश फिल्म निर्माता झारखंड, बिहार और उत्तराखंड का रूख कर चुके हैं…

प्रेस आतिथ्य के बजट का एक अलग ही खेल है। शासन स्तर पर लगता है कि 10 करोड़ सालाना का बजट केवल पत्रकार ही डकार जाते हैं.. लेकिन सच तो यह है कि इस बजट का 80% हिस्सा दूसरे कामों में निपटा दिया जाता है...और खर्चे का पर्चा किस पत्रकार के नाम पर फटता है यह तो बेचारे उस पत्रकार को भी न पता होता है...!!! जबकि शासन स्तर के अधिकारी तक इसी बजट से भांजा-भांजी, मामे-मामी, घर-घरैतिन, नौकर-चाकर के लिए गाड़ी लगाये रहते हैं और बजट इसी प्रेस आतिथ्य से खर्च होता है ...एक वरिष्ठ पत्रकार साथी तो यहां तक कहते हैं कि भांजा सेवेन स्टार होटल्स में ग्लास टन्नाता है और भुगतान ....!!! आरटीआई लगा कर इस मसले पर जानकारी ली जानी चाहिए...
 

 

जारी...(बजट बना महामारी)
कल पढ़िए कि छोटे और मझोले अखबारों से बजटीय खेल और नफरत कैसे पड़ सकती है महंगी..)

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