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Up Kiran, Digital Desk: भारत लंबे समय से दो प्रमुख आतंकी सरगनाओं - हाफिज सईद (2008 मुंबई हमलों का मास्टरमाइंड) और मसूद अजहर (पुलवामा हमले समेत कई हमलों का जिम्मेदार) - को पाकिस्तान से प्रत्यर्पित करने की मांग करता रहा है। लेकिन सवाल यह है कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच कोई औपचारिक प्रत्यर्पण संधि (extradition treaty) नहीं है, तो क्या उन्हें भारत लाना संभव है? और अगर हाँ, तो पाकिस्तान ऐसा क्यों नहीं करता? आइए समझते हैं इस पूरे पेच को।

क्या पाकिस्तान उन्हें भारत को सौंप सकता है? 

यह सच है कि भारत और पाकिस्तान के बीच प्रत्यर्पण संधि नहीं है, जिसका मतलब है कि एक देश दूसरे देश से कानूनी रूप से किसी अपराधी को सौंपने की मांग नहीं कर सकता। लेकिन, इसके बावजूद कुछ ऐसे रास्ते हैं जिनसे पाकिस्तान सैद्धांतिक रूप से इन आतंकियों को सौंप सकता है:

पाकिस्तान के अपने कानून: पाकिस्तान के पास अपने एंटी-टेररिज्म कानून हैं। अगर उनके खिलाफ पुख्ता सबूत हों, तो पाकिस्तान की अदालतें उन्हें दोषी ठहरा सकती हैं। सैद्धांतिक रूप से, पाकिस्तान सरकार चाहे तो उन्हें भारत को 'सौंपने' के बजाय, अपने ही देश में कानूनी प्रक्रिया पूरी कर सकती है या उन्हें 'निर्वासित' (deport) भी कर सकती है, खासकर यदि उनकी नागरिकता पर सवाल उठें।

अंतर्राष्ट्रीय दबाव और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका: हाफिज सईद और मसूद अजहर दोनों को संयुक्त राष्ट्र (UN) द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित किया गया है। इसका मतलब है कि उनके खिलाफ यात्रा प्रतिबंध, संपत्ति फ्रीज और हथियार प्रतिबंध जैसे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लागू होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय दबाव, खासकर FATF (फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स) जैसे संगठनों से, पाकिस्तान पर इन आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बढ़ाता है। FATF ने पाकिस्तान को 'ग्रे लिस्ट' में रखा हुआ है, और आतंकी फंडिंग रोकने में नाकाम रहने पर उसे 'ब्लैकलिस्ट' होने का डर है।

इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस: भारत ने इन दोनों के खिलाफ इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस जारी किए हुए हैं। अगर ये किसी ऐसे देश में पाए जाते हैं जहाँ इंटरपोल की पहुंच है, तो उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है।

तो फिर पाकिस्तान ऐसा क्यों नहीं करता?

असल समस्या कानूनी या तकनीकी नहीं, बल्कि राजनीतिक और रणनीतिक है। पाकिस्तान इन आतंकी सरगनाओं को भारत को नहीं सौंपता क्योंकि:

'रणनीतिक संपत्ति' (Strategic Assets): पाकिस्तान की गहरी सैन्य और खुफिया प्रतिष्ठानों (जिसे 'डीप स्टेट' भी कहा जाता है) ने दशकों से इन आतंकी संगठनों और उनके नेताओं को भारत के खिलाफ एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया है। इन्हें 'रणनीतिक संपत्ति' माना जाता है। उन्हें भारत को सौंपना या खत्म करना उनके लिए अपनी दशकों पुरानी रणनीति को छोड़ना होगा।

आंतरिक राजनीतिक दबाव और हिंसा का डर: इन आतंकी संगठनों की पाकिस्तान के अंदर एक मजबूत पकड़ है और उनके समर्थक काफी आक्रामक हैं। अगर सरकार उन्हें भारत को सौंपने की कोशिश करती है, तो इससे देश के अंदर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता फैलने का डर रहता है।

न्यायपालिका का ढीला रवैया: पाकिस्तान की न्यायपालिका पर अक्सर सेना का प्रभाव और भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। इन आतंकियों के खिलाफ केस को जानबूझकर कमजोर किया जाता है या लटकाया जाता है, ताकि वे बरी हो सकें।

अंतर्राष्ट्रीय मंच पर 'आतंकवाद से पीड़ित' का दिखावा: पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय मंच पर खुद को आतंकवाद से पीड़ित देश के रूप में पेश करना चाहता है, न कि उसे बढ़ावा देने वाले देश के रूप में। इन आतंकियों को सौंपने का मतलब होगा कि पाकिस्तान यह स्वीकार करे कि उसने अपनी धरती पर आतंकवादियों को पनाह दी है।

साक्ष्य का बहाना: पाकिस्तान अक्सर भारत द्वारा दिए गए सबूतों को 'अपर्याप्त' या 'गैर-विश्वसनीय' बताकर खारिज कर देता है, जिससे कार्रवाई टलती रहती है।

भले ही अंतर्राष्ट्रीय कानून और दबाव पाकिस्तान को इन आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करें, लेकिन जब तक पाकिस्तान अपने रणनीतिक हितों, आंतरिक राजनीति और 'डीप स्टेट' की पकड़ से बाहर नहीं आता, तब तक हाफिज सईद और मसूद अजहर जैसे आतंकी उसकी धरती पर सुरक्षित रहेंगे, और भारत के लिए उन्हें न्याय के कटघरे में लाना एक बड़ी चुनौती बनी रहेगी।

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