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Up Kiran, Digital Desk: क्या आप यकीन करेंगे कि गुजरात में कभी एक ऐसा सुल्तान राज करता था, जिसकी भूख का कोई पार नहीं था? कहा जाता है कि सुल्तान महमूद बेगड़ा का पेट कभी भरता ही नहीं था। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि यह वही शख्स था जो सुबह से लेकर रात तक बस खाते रहने में ही मगन रहता था और खाने में उसे सबसे ज्यादा लगाव था समोसे और जलेबी से।
हर वक़्त कुछ न कुछ खाने की आदत
इटली के यात्री लुडोविको डी वार्थेमा और पुर्तगाली घुमक्कड़ दुआर्ते बार्बोसा जैसे विदेशियों ने अपने यात्रा वृतांत में महमूद बेगड़ा की इस अनोखी भूख का जिक्र किया है। कहा जाता है कि वह नाश्ते में एक बड़ा गिलास शहद पी जाता और डेढ़ सौ केले खत्म कर देता। दिन में वह करीब 35 किलो तक खाना खा जाता था और रात में तो उसकी आदत और भी मजेदार थी उसने अपने शयनकक्ष के चारों ओर थालों में समोसे और जलेबियां सजवा रखी थीं। ताकि अगर आधी रात को आंख खुले तो भूख बुझाने में देर न लगे।
समोसे-जलेबी का सफर भी कम दिलचस्प नहीं
अब सवाल यह है कि आखिर समोसा और जलेबी सुल्तान के थाल तक पहुंचे कैसे? क्या आप जानते हैं कि इस तिकोने नाश्ते का इतिहास भारत से भी कहीं पहले का है? समोसे की जड़ें मिस्र, मध्य एशिया और फारसी साम्राज्य से जुड़ी हुई हैं। पुराने दस्तावेज बताते हैं कि इसे कभी ‘संबोसा’, ‘संबुसक’ या ‘संबुसाज’ कहा जाता था। दरअसल, ‘संबोसा’ शब्द पर्शियन बोली से निकला और वहां के पिरामिडनुमा आकार से मेल खाता था।
11वीं सदी के ईरानी इतिहासकार अबुल-फजल बेहाकी से लेकर मध्यकालीन ‘निमतनामा-ए-नासिरुद्दीन-शाही’ तक, कई किताबों में समोसे का जिक्र मिलता है। उस दौर में यह मुसाफिरों का साथी माना जाता था छोटा, कुरकुरा और चलते-फिरते खाने में आसान।
दिल्ली दरबार से गलियों तक
भारत में समोसे ने दिल्ली सल्तनत के ज़रिए अपनी जगह बनाई। कहते हैं कि तुर्क और अफगान रसोइयों ने इसे शाही रसोई में पॉपुलर किया। अमीर खुसरो जैसे विद्वानों ने भी इसका जिक्र किया। मोहम्मद बिन तुगलक के दरबार में भी समोसे परोसे जाते थे इब्न बतूता के लेख में इसका प्रमाण मिलता है। हैदराबाद में आज जो ‘लुकमी’ मिलता है, वह उसी की याद दिलाता है।
अरब देशों में यही ‘संबुसक’ मांस, पालक और चीज़ से भरा जाता है। वहीं भारत में आलू और मटर जैसे देसी मसालेदार तत्व जुड़ गए। यही वजह है कि हर इलाके में समोसे का स्वाद अलग-अलग है कहीं मूंगफली तो कहीं पनीर भी भर दिया जाता है।
मिठास का विदेशी रिश्ता
अब बात जलेबी की। वह भी विदेशी सफर तय करके आई। इतिहासकार बताते हैं कि फारसी दस्तावेजों में ‘जलाबिया’ या ‘जुल्बिया’ नाम से इसकी मिठास दर्ज है। 10वीं सदी की अरबी किताबों में भी जलेबी का जिक्र मिलता है। रमजान के दौरान इसे बड़े चाव से खाया जाता था। कहा जाता है कि जब तुर्क और अरब सेनाओं ने भारत में कदम रखा तो वे जलेबी को भी साथ लाए। यही जलाबिया भारत आकर ‘जलेबी’ बन गई।
जहर से बना था सुल्तान का शरीर जहरीला
इतिहास के पन्नों में एक और दिलचस्प किस्सा जुड़ा है महमूद बेगड़ा के शरीर से वह रोज़ाना थोड़ा-थोड़ा जहर भी निगलता था! यह आदत उसे बचपन में जहर दिए जाने के बाद लगी थी, ताकि शरीर जहर के प्रति प्रतिरोधी बन जाए। माना जाता है कि उसका शरीर इतना जहरीला हो गया था कि अगर कोई मक्खी उसके हाथ पर बैठ जाती तो वहीं मर जाती। कुछ यात्रियों ने यह भी लिखा है कि उसके संपर्क में आने से महिलाओं की जान तक जा सकती थी।
दुनिया घूमता समोसा और जलेबी
आज समोसा मिस्र से लेकर इंडिया तक और ईरान से लेकर इजरायल, अफ्रीका, इंडोनेशिया, मालदीव तक अपना स्वाद फैला चुका है। हॉर्न ऑफ अफ्रीका के देशों में रमजान के महीने में ‘संबुसा’ खास नाश्ता होता है। सेंट्रल एशिया में इसे बेक किया जाता है, तलने की बजाय। अलग-अलग मसाले और भरावन इसे हर जगह अलग बनाते हैं।
ठीक वैसे ही जलेबी भी तुर्की, ईरान और अरब मुल्कों से होकर भारत में त्योहारों का हिस्सा बनी। खासकर मुगलों के दौर में इसे भारतीय रसोई में जगह मिली और आज यह किसी भी जश्न का हिस्सा होती है।
समोसे-जलेबी पर हेल्थ वार्निंग
अब आप सोचिए, वही समोसा और जलेबी जो कभी सुल्तानों के बिस्तर के पास रात में सजते थे, अब स्वास्थ्य मंत्रालय के नए निर्देशों के मुताबिक उन पर भी चेतावनी छप सकती है। बिलकुल वैसे ही जैसे सिगरेट पैकेट पर चेतावनी दी जाती है। एम्स नागपुर जैसे संस्थानों में इसे लेकर चर्चाएं भी हो रही हैं।
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