
Up Kiran, Digital Desk: क्या आपने कभी सोचा है कि 140 करोड़ की आबादी वाला हमारा देश ओलंपिक की मेडल टैली में आज भी इतना पीछे क्यों है? हमारे पास जोश है, जुनून है और टैलेंट की भी कोई कमी नहीं, फिर भी हम चीन, अमेरिका या जापान जैसे देशों को टक्कर क्यों नहीं दे पाते?
इन सवालों का जवाब अब सिर्फ ज्यादा स्टेडियम बनाने या खिलाड़ियों को विदेश ट्रेनिंग पर भेजने तक ही सीमित नहीं है। अगर भारत को सच में खेलों का 'सुपरपावर' बनना दो मोर्चों पर एक साथ जंग लड़नी होगी - खिलाड़ियों को तराशना और खेल का सामान भी खुद बनाना। यह एक ऐसा सपना है जो न सिर्फ हमारे मेडल्स की संख्या बढ़ाएगा, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी एक नई उड़ान देगा।
1. मेडल जीतने की 'फैक्ट्री' कैसे बने भारत?
एक खिलाड़ी सिर्फ अपनी मेहनत से मेडल नहीं जीतता, उसके पीछे एक पूरा इकोसिस्टम काम करता है।
बचपन से ही तराशो: हमें चीन की तरह "कैच देम यंग" (catch them young) की नीति अपनानी होगी। स्कूलों और कॉलेजों में वर्ल्ड-क्लास ट्रेनिंग सुविधाएं और अच्छे कोच मुहैया कराने होंगे, ताकि हर बच्चे को अपनी प्रतिभा दिखाने का सही मौका मिल सके।
खेल को बनाएं करियर: आज भी हमारे समाज में "पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब" वाली सोच जिंदा है। हमें इस सोच को बदलना होगा। खिलाड़ियों को अच्छी स्कॉलरशिप, सरकारी नौकरी और सम्मान देना होगा, ताकि वे खेल को एक सुरक्षित और आकर्षक करियर के रूप में देख सकें।
साइंस और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल: अब खेल सिर्फ ताकत का नहीं, दिमाग और तकनीक का भी हो गया ਹੈ। खिलाड़ियों की डाइट, उनकी चोट, उनकी परफॉरमेंस... हर चीज को ट्रैक करने के लिए हमें एडवांस स्पोर्ट्स साइंस और टेक्नोलॉजी का सहारा लेना होगा।
2. 'मेड इन इंडिया' खेल का सामान: छिपा हुआ खजाना
अभी कहानी का दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू बाकी है। क्या आप जानते हैं कि जिस हॉकी स्टिक, बैडमिंटन रैकेट या जूते का इस्तेमाल हमारे खिलाड़ी करते हैं, उनमें से ज्यादातर विदेश से बनकर आते हैं? भारत दुनिया में खेल के सामान का सबसे बड़ा उपभोक्ता (consumer) तो है, लेकिन सबसे बड़ा उत्पादक (manufacturer) नहीं।
यहीं पर एक बहुत बड़ा मौका छिपा है:
आत्मनिर्भर भारत: अगर हम खेल का सारा सामान, từ кроссовки до javelin, खुद ही बनाने लगें, तो सोचिए कितने रोजगार पैदा होंगे। मेरठ और जालंधर में इसकी काबिलियत है, बस उन्हें सरकारी मदद और आधुनिक टेक्नोलॉजी की जरूरत है।
लागत कम, खिलाड़ी ज्यादा: जब खेल का सामान देश में ही सस्ता बनेगा, तो ज्यादा से ज्यादा बच्चे उसे खरीद पाएंगे और खेल से जुड़ पाएंगे।
दुनिया पर राज: 'मेड इन इंडिया' स्पोर्ट्स गुड्स को हम पूरी दुनिया में एक्सपोर्ट भी कर सकते जिससे हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत होगी।
खेल सिर्फ मेडल जीतने का नाम नहीं है। यह देश के युवाओं को एक दिशा दे देश की सॉफ्ट पावर को बढ़ाता है और देश की अर्थव्यवस्था को गति देता है। जिस दिन भारत मैदान पर मेडल जीतने के साथ-साथ खेलने का सामान बनाने में भी दुनिया का किंग बन जाएगा, उसी दिन असली मायनों में खेलों का 'सुपरपावर' कहलाएगा।