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दुनियाभर में कच्चे तेल की आपूर्ति और कीमतों को लेकर जारी खींचतान के बीच भारत की रणनीतिक प्राथमिकताएँ फिर चर्चा में हैं। अमेरिका की ओर से बढ़ते दबाव, विशेषकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हालिया टिप्पणी के बावजूद, भारत अब भी रूस से कच्चा तेल खरीदना जारी रखे हुए है। सवाल यह है कि भारत ऐसा क्यों कर रहा है, और इस नीति का आम जनता पर क्या असर पड़ रहा है?
तेल की कीमत और आपूर्ति से जुड़ी मजबूरियाँ
भारत अपनी कुल ऊर्जा ज़रूरतों का लगभग 85% हिस्सा आयात से पूरा करता है। ऐसे में किसी भी बड़े आपूर्तिकर्ता से दूरी बनाना आसान नहीं होता, खासकर तब जब वह आपूर्तिकर्ता बेहतर दरों पर लगातार आपूर्ति सुनिश्चित कर रहा हो। रूस, जो दुनिया के सबसे बड़े तेल उत्पादकों में शामिल है, भारत को किफायती दरों पर कच्चा तेल बेचता है—यह एक ऐसा कारक है जिसे अनदेखा करना मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों में भारत के लिए संभव नहीं।
अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाम कानूनी दायरा
जहाँ अमेरिका और यूरोपीय संघ ने ईरान और वेनेजुएला जैसे देशों पर सख्त प्रतिबंध लगाए हैं, वहीं रूस के खिलाफ ऐसी कोई सार्वभौमिक रोक नहीं है। इसलिए भारत का रूसी तेल खरीदना किसी अंतरराष्ट्रीय नियम का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। सरकारी सूत्रों के अनुसार, भारतीय तेल कंपनियाँ अमेरिकी द्वारा सुझाई गई 60 डॉलर प्रति बैरल की कीमत सीमा का पालन कर रही हैं। वहीं, यूरोपीय संघ ने सितंबर से इसे और घटाकर 47.6 डॉलर कर देने का प्रस्ताव रखा है।
तेल के अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में रूस की भूमिका
रूस हर दिन लगभग 95 लाख बैरल तेल का उत्पादन करता है, जिसका बड़ा हिस्सा वह निर्यात करता है। 2022 में जब यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में यह आशंका बनी कि रूस पर प्रतिबंध लग सकते हैं, तो वैश्विक तेल बाज़ार में उथल-पुथल मच गई। उस समय ब्रेंट क्रूड की कीमत 137 डॉलर तक जा पहुँची थी। उस अनुभव ने भारत सहित कई विकासशील देशों को ऊर्जा सुरक्षा के लिए विकल्प तलाशने पर मजबूर किया।
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