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Up Kiran, Digital Desk: भारत-पाकिस्तान के मध्य चल रही खींचतान अभी थमी भी नहीं थी कि चीन ने एक बार फिर अपनी 'बिल्ली जैसी चालें' चलना शुरू कर दिया है। एक ओर पूर्वोत्तर भारत की सीमा पर चीन बांग्लादेश को अपने पाले में खींचने की कोशिशों में जुटा है तो दूसरी ओर दक्षिण में श्रीलंका के साथ इकोनॉमिक डिप्लोमेसी की खिचड़ी पका रहा है। भारत के लिए ये संकेत बेहद गंभीर हैं खासतौर पर तब जब भारत के इन दोनों पड़ोसी देशों की मौजूदा सरकारों के साथ संबंध अपेक्षाकृत कमजोर हैं।

तो सवाल उठता है—क्या चीन एक बार फिर 'मोती की माला' (String of Pearls) जैसी रणनीति को हवा दे रहा है। क्या श्रीलंका के साथ Free Trade Agreement (FTA) भारत के आर्थिक व कूटनीतिक हितों पर चोट करेगा।

श्रीलंका में चीन की बड़ी तैयारी

चीन के वाणिज्य मंत्री वांग वेंटाओ के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल 30 मई को कोलंबो में श्रीलंका-चीन व्यापार और निवेश फोरम में हिस्सा लेने वाला है। इस दल में 77 चीनी कंपनियों के प्रतिनिधियों सहित कुल 115 सदस्य शामिल होंगे। इनका मकसद है—श्रीलंका के साथ आर्थिक संबंध मजबूत करना और निवेश की संभावनाएं तलाशना।

इस फोरम में दो अहम MoU पर दस्तखत किए जाने की उम्मीद है। एक द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देने के लिए और दूसरा औद्योगिक एवं सप्लाई चेन में सहयोग के लिए संयुक्त कार्य समूह की स्थापना पर। यानी चीन सिर्फ व्यापार नहीं बल्कि उत्पादन और लॉजिस्टिक्स में भी श्रीलंका को अपनी जकड़ में लेना चाहता है।

कौन-कौन सी इंडस्ट्रीज़ हैं टारगेट पर

चीनी प्रतिनिधिमंडल जिन क्षेत्रों में व्यापार की बात करेगा उनमें टेक्सटाइल मशीनरी इलेक्ट्रॉनिक्स फूड प्रॉडक्ट्स देसी हर्बल प्रोडक्ट्स और पशु उत्पाद शामिल हैं। चीन अब सिर्फ सस्ते सामान बेचने तक सीमित नहीं रहना चाहता वह श्रीलंका में मैन्युफैक्चरिंग बेस बनाकर उसे लॉन्ग टर्म पार्टनर बनाना चाहता है—एक ऐसा साथी जो भारतीय प्रभाव से बाहर हो।

हंबनटोटा: एक बंदरगाह कई मतलब

याद कीजिए दिसंबर 2017 में चीन ने श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह 99 साल की लीज़ पर ले लिया था। अब 3.7 बिलियन डॉलर का निवेश कर वहीं पर एक अत्याधुनिक ऑयल रिफाइनरी बनाने की योजना बनाई गई है। ये वही हंबनटोटा है जिसकी डील पर मौजूदा राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके विपक्ष में रहते हुए तीखा विरोध कर चुके थे।

अब वही राष्ट्रपति चीन की गोद में बैठने को तैयार दिखते हैं। सवाल ये भी है कि क्या श्रीलंका की आर्थिक मजबूरी उसे बार-बार चीन के कर्ज जाल में धकेल रही है।

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