(पवन सिंह)
उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग सैकड़ों छोटे व मझोले अखबारों व पत्रिकाओं का जीवन कोष है लेकिन एक योजनाबद्ध तरीके से शासन स्तर से बजटीय शतरंज के पासे बिछाकर "शकुनि की तरह" कोई इनके अस्तित्व को ही मिटा देना चाहता है।
शासन में बैठा यह कौन शकुनिनुमा अफसर हैं जो एक ओर तो छोटे व मझोले अखबारों व पत्रिकाओं को नष्ट कर देना चाहता है और साथ ही माननीय मुख्यमंत्री की तमाम जनहितकारी योजनाओं को आम जनता तक पहुंचने न देने का शातिराना खेल, खेल रहा है? ... बजटीय रोक-टोंक ने पूरे विभाग में अफरातफरी मचा दी है..। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को सरकार द्वारा पर्याप्त बजट आवंटित होता रहा है लेकिन विगत दो वर्षों में इसे तथाकथित वित्तीय गड़बड़ी की आशंका का मुखौटा पहनाकर, इसे रोकने, काटने, विलंबित करने...के जिस तरह के दांव-पेंच चले जा रहे थे, उनसे अब विभागीय प्रचार प्रसार का मूल काम बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।
दरअसल, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को चलाने और संभालने में किसी भी ब्यूरोक्रेट को अपने दिलो-दिमाग से यह विचार निकाल कर गंगा में प्रवाहित करना होता है कि वो इस विभाग को बतौर एक कमिश्नर श, एक जिलाधिकारी या एक कट्टर प्रशासक के तौर पर हांक सकता है...इस विभाग के संचालन की तासीर अन्य शासकीय विभागों से 100% अलहदा है...इसे आप जोर-जबरदस्ती या अपनी हेकड़ी से नहीं हांक सकते हैं। यह विभाग सरकार और जनता के बीच विश्वास बहाली बनाये रखने और सरकारी लोक कल्याणकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाने का विभाग है लेकिन इस उद्देश्य को कौन अधिकारी बार-बार बजट रोक कर प्रभावित कर रहा है? अगर वित्तीय नजर रखनी है तो विगत दो-तीन सालों में कोई एक निश्चित फार्मेट बनवा कर विभाग को क्यों नहीं सौंपा गया? खर्चों का विवरण जब मन चाहे तब मांगा जाता है या वित्तीय वर्ष के अंत में? जब विभाग को बजट खर्चा ही नहीं करना है तो विभाग के आला अफसर बजट लेते ही क्यों हैं? जब इन अधिकारी को लगता है कि यह उत्तर प्रदेश का बेमतलब का विभाग है तो वे यहां बने क्यों हैं?
ये आला अधिकारी छोटे और मझोले अखबारों के लिए कह चुके हैं कि ये सब कूड़ा-करकट हैं। इनको विज्ञापन देने का क्या औचित्य है...!! इन आला साहेब को शायद ये पता नहीं है कि आजादी की लड़ाई में इन्हीं छोटे अखबारों की बहुत बड़ी भूमिका रही है और आज भी छोटे छोटे कस्बों और गांवों में यही चरपन्ना/अठपन्ना अखबार ही अंतिम पंक्ति के आदमी की लड़ाई लड़ते हैं...। इनके प्रकाशक और मुद्रक 20-30 हजार का विज्ञापन लेकर अपना पेट भी पालते हैं और लड़ते भी हैं...यही छोटे अखबार हजारों बड़ी खबरें सामने लाते हैं जिन्हें बाद में बड़का मीडिया हिम्मत बटोर कर बानविटा और रिवाइटल खाकर दिखाता/पढ़ाता है।
आम जनता के लिए लड़ने वाले इन पत्रकारों में से 90% पत्रकार इन्हीं छोटे व मझोले अखबारों से जुड़े रहे हैं। 2017 में राज्य में 48 पत्रकारों पर शारीरिक हमला किया गया है और 66 के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है या उन्हें गिरफ्तार किया गया है। इसे आप मीडिया की घेराबंदी' शीर्षक वाली सीएएजे की रिपोर्ट में पढ़ सकते हैं। 2023 की रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में, दिल्ली के 54 पत्रकारों को निशाना बनाया गया, जो सबसे अधिक है, इसके बाद पश्चिम बंगाल (25), मणिपुर (22) और उत्तर प्रदेश में (20), केरल (16), झारखंड (11), महाराष्ट्र और तेलंगाना (आठ-आठ) ... इसलिए अगर ये अधिकारी महोदय छोटे और मझोले अखबारों से ख़फ़ा ख़फ़ा से हैं तो इन्हें अपनी "खफाई" पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। ये अधिकारी स्वीकार करें न करें लेकिन यह सच है कि ये छोटे और मझोले अखबार ही सुदूर इलाकों तक सरकार की योजनाओं तक पहुंचाते हैं... इसलिए बजट रोकने और फिर रिलीज करने का शातिराना खेल बंद होना चाहिए और बजट कैसे ख़र्च हो इसकी एक व्यवस्था बनानी चाहिए...!
(जारी..)
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