Up kiran,Digital Desk : हम सबने यह महसूस किया है। ट्रैफिक में किसी पुरानी बस या ट्रक के पीछे फंस जाना और उस काले, ज़हरीले धुएं से बचने के लिए नाक-मुंह सिकोड़ लेना। हम यही सोचते हैं कि यह हमारे फेफड़ों को कितना नुकसान पहुंचाएगा। लेकिन क्या हो अगर मैं आपसे कहूं कि यह लड़ाई सिर्फ फेफड़ों की नहीं है? एक नई अंतरराष्ट्रीय स्टडी ने जो खुलासा किया है, वह इससे कहीं ज़्यादा डरावना है। यह धुआं सिर्फ हमारी सांसों में नहीं घुल रहा, बल्कि सीधे हमारे दिमाग के अंदर घुसकर उसे खोखला कर रहा है।
मिलिए दिमाग के 'सिक्योरिटी गार्ड्स' से, जो खतरे में हैं
हमारे दिमाग के अंदर लाखों-करोड़ों छोटी-छोटी कोशिकाएं होती हैं, जिन्हें 'माइक्रोग्लिया' (Microglia) कहते हैं। आप इन्हें हमारे दिमाग का 'सफाई कर्मचारी' या 'सिक्योरिटी गार्ड' समझ सकते हैं। इनका काम बहुत ज़रूरी है:
- दिमाग में जमा होने वाले कचरे को साफ करना।
- किसी चोट या इन्फेक्शन से दिमाग की हिफाजत करना।
- और दिमाग के नेटवर्क को दुरुस्त रखना।
जब तक ये अपना काम ठीक से कर रहे हैं, हमारा दिमाग स्वस्थ और सुरक्षित रहता है। लेकिन अब पता चला है कि डीज़ल गाड़ियों, खासकर पुराने मॉडलों से निकलने वाले धुएं के बेहद बारीक कण इन 'सिक्योरिटी गार्ड्स' के सबसे बड़े दुश्मन हैं।
यह हमला हो कैसे रहा है?
फिनलैंड के शोधकर्ताओं ने अपनी स्टडी में पाया कि जब डीज़ल के धुएं के ये कण सांस के ज़रिए हमारे शरीर में घुसते हैं, तो वे दिमाग तक पहुंच जाते हैं और इन माइक्रोग्लिया कोशिकाओं को पंगु बना देते हैं।
- वे उनकी सफाई करने की क्षमता को कमज़ोर कर देते हैं।
- दिमाग में एक तरह की सूजन (chronic inflammation) पैदा हो जाती है, जैसे आग अंदर ही अंदर सुलग रही हो।
- जब दिमाग के ये 'गार्ड' ही कमज़ोर पड़ जाएंगे, तो दिमाग बीमारियों का घर बन जाता है। इसी वजह से अल्जाइमर और पार्किंसन जैसी दिमाग से जुड़ी गंभीर बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।
पुराने डीज़ल इंजन हैं सबसे बड़े विलेन
इस रिसर्च में यह बात शीशे की तरह साफ हो गई है कि आधुनिक यूरो-6 मानक वाली गाड़ियों के मुकाबले, पुरानी काला धुआं फेंकने वाली गाड़ियों का धुआं दिमाग के लिए कहीं ज़्यादा खतरनाक है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि नई गाड़ियां बिल्कुल सुरक्षित हैं। उनका असर कम ज़रूर है, लेकिन है ज़रूर।
और दिल्ली-एनसीआर का क्या हाल है?
अब ज़रा अपने शहर, दिल्ली-एनसीआर की बात करते हैं। IIT कानपुर से लेकर TERI तक, सभी बड़ी स्टडीज़ यह चीख-चीख कर कह रही हैं कि यहां प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण गाड़ियां ही हैं।
- हमारे फेफड़ों में उतरने वाले सबसे खतरनाक कण (PM 2.5) का 40% हिस्सा गाड़ियों से आ रहा है।
- हर रोज़ दिल्ली की सड़कों पर 1100 से ज़्यादा नई मोटरसाइकिलें और 500 से ज़्यादा नई कारें उतर रही हैं, जो इस ज़हर को और बढ़ा रही हैं।
यह एक कड़वी सच्चाई है। हमें पता है कि यह धुआं हमारे दिमाग को अंदर ही अंदर खोखला कर रहा है। वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं। लेकिन फिर भी सड़कों पर गाड़ियों का सैलाब बढ़ता जा रहा है। शायद हम यह भूल रहे हैं कि हर बार जब हम उस काले धुएं में सांस लेते हैं, तो हम सिर्फ हवा नहीं, बल्कि अपने दिमाग का भविष्य भी दांव पर लगा रहे होते हैं।

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