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Up Kiran, Digital Desk: सावन का महीना शुरू हो चुका है और इस दौरान अधिकतर हिंदू लोग मांस और शराब से दूरी बनाए रखते हैं। मान्यता है कि सावन जैसे पवित्र महीने में मांसाहार करना धर्म के विरुद्ध माना जाता है। पुराने लोगों के अनुसार धर्मशास्त्रों में भी मांसाहार निषिद्ध बताया गया है। यही वजह है कि मंदिरों में चढ़ने वाले प्रसाद की शुद्धता पर खास ध्यान दिया जाता है कि वह पूरी तरह शाकाहारी और सात्विक हो।
हालांकि, भारत जैसे राष्ट्र में हर कुछ किलोमीटर पर भाषा से लेकर खानपान और पूजा-पद्धतियां बदल जाती हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि देश में कुछ मंदिर ऐसे भी हैं जहां देवी-देवताओं को प्रसाद के तौर पर मांस अर्पित किया जाता है वो भी चिकन, मटन और मछली जैसे मांसाहारी खाद्य पदार्थ। इसके बाद इसे भक्त श्रद्धा से प्रसाद के रूप में ग्रहण भी करते हैं।
कई जगह आज भी बलि प्रथा प्रचलित है। पुराने जमाने में नर बलि दी जाती थी, मगर अब इसकी जगह पशु बलि ने ले ली है। धर्मशास्त्र कुछ भी कहें, पर देश में कई मंदिरों में आज भी जानवरों की बलि दी जाती है और उनका मांस भक्तों में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
जैसे असम के प्रसिद्ध कामाख्या देवी मंदिर को शक्तिपीठ और तंत्र साधना का केंद्र माना जाता है, वहां मां को प्रसन्न करने के लिए मांस और मछली चढ़ाई जाती है। वहीं कोलकाता का कालीघाट मंदिर भी मशहूर है जहां बकरे की बलि दी जाती है और उसका मांस प्रसाद के रूप में वितरित होता है।
तमिलनाडु के मदुरई में मुनियांदी स्वामी मंदिर में तो चिकन और मटन बिरयानी तक भगवान को चढ़ाई जाती है और यही बिरयानी प्रसाद बनकर भक्तों में बांटी जाती है। इसी तरह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर स्थित तरकुलहा देवी मंदिर में भी बकरे की बलि दी जाती है और मांस मिट्टी के बर्तनों में पकाकर प्रसाद में बांटा जाता है।
कोलकाता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर में भी काली माता को मछली अर्पित की जाती है, जो बाद में भक्तों को दी जाती है।
ऐसे खून खराबे पर कानून क्या
अब सवाल उठता है कि इस पर कोई कानून क्यों नहीं चलता? इसका जवाब भारतीय संविधान में छिपा है हर नागरिक को अपनी आस्था और पूजा-पद्धति का पालन करने का अधिकार है, साथ ही भोजन के चुनाव का भी मौलिक अधिकार है। इसलिए जहां वैध है, वहां पशु बलि पर कोई कानूनी पाबंदी नहीं लगाई जा सकती।
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