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Up Kiran, Digital Desk: बिहार की राजनीति में इस बार चर्चा मंदिरों पूजा या विकास योजनाओं की नहीं बल्कि एक मटन पार्टी की हो रही है। और ये मुद्दा सिर्फ थाली तक सीमित नहीं है इसकी गूंज संसद के गलियारों से लेकर सोशल मीडिया तक सुनाई दे रही है। सवाल यह नहीं कि कौन क्या खा रहा है बल्कि ये है कि सार्वजनिक जीवन में आस्था और आचरण का संतुलन आखिर कितना मायने रखता है?
सियासी रस्म या संस्कृति की संवेदना
बीते सोमवार सावन का दूसरा सोमवार था वो दिन जिसे कई हिन्दू व्रत-उपवास और शिव आराधना के लिए बेहद पवित्र मानते हैं। इसी दिन केंद्रीय मंत्री ललन सिंह ने मुंगेर में एक सार्वजनिक भोज आयोजित किया जिसमें मटन चिकन और मछली जैसे व्यंजन शामिल थे। हालांकि मंत्री ने मंच से स्पष्ट किया कि शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के भोजन की व्यवस्था है और जो लोग सावन का पालन करते हैं वे अपनी मान्यता के अनुसार खा सकते हैं फिर भी बात यहीं नहीं रुकी।
दिखावे पर कटाक्ष सच्चाई पर चुप्पी
तेजस्वी यादव ने इस पूरे घटनाक्रम को मौके के रूप में देखा और सरकार पर ‘दोहरी मानसिकता’ का आरोप लगा दिया। उन्होंने सोशल मीडिया पर कटाक्ष किया कि जिन नेताओं को सावन के दिनों में मटन खाने से परहेज नहीं वे ही मंचों पर सनातन संस्कृति का पाठ पढ़ाते हैं। तेजस्वी का कहना था कि खुद प्रधानमंत्री भी इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं जबकि विपक्ष के छोटे-छोटे कार्यों को मुद्दा बनाकर सियासी हथियार बनाया जाता है।
आम लोगों की भावनाओं पर असर
इस पूरी घटना ने जनता के बीच एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है: क्या नेता निजी आस्था का सम्मान करना जरूरी नहीं समझते? जबकि आम नागरिक धार्मिक मान्यताओं के चलते इन दिनों मांसाहार से परहेज करते हैं ऐसे में सार्वजनिक मंच से मटन पार्टी का आयोजन क्या उनके विश्वास का अपमान नहीं है?
कुछ लोगों का मानना है कि आस्था निजी मामला है मगर जब नेता सार्वजनिक जीवन में धार्मिक प्रतीकों और अवसरों का इस्तेमाल करते हैं तो उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे सार्वजनिक भावना का भी ख्याल रखें। ऐसे मामलों में दिखावटी श्रद्धा और असली आचरण के बीच का फर्क साफ नज़र आने लगता है।
विरोधी नेताओं की राय और जनता की सोच
राजनीतिक गलियारों में यह तर्क दिया गया कि किसी के खानपान को मुद्दा बनाना अनुचित है मगर जब वही खानपान सार्वजनिक आयोजन में होता है वह भी एक ऐसे समय में जो धार्मिक रूप से संवेदनशील है तो फिर जवाबदेही भी बनती है। यह मामला धार्मिक कट्टरता से अधिक नैतिक जिम्मेदारी से जुड़ा है।
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