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Up Kiran, Digital Desk: प्रसिद्ध कोचिंग शिक्षक अवध ओझा ने महज एक वर्ष में आम आदमी पार्टी और राजनीतिक दुनिया को छोड़ दिया। उन्होंने इस फैसले को अपनी व्यावहारिक कमजोरी से जोड़ा। ओझा मानते हैं कि किताबी ज्ञान और असल जीवन की राजनीति में बड़ा फर्क है। सैद्धांतिक समझ मजबूत होने के बावजूद व्यावहारिक पक्ष में कमी ने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर किया। उन्हें महसूस हुआ कि अभी तैयारी अधर में है।

राजनीति में शिक्षकों की मुश्किल राह

पिछले साल 2 दिसंबर को आम आदमी पार्टी से जुड़ने वाले ओझा ने दिल्ली की पटपड़गंज सीट पर चुनाव लड़ा। वहां भाजपा के रवि नेगी से हार मिली। उसके बाद पार्टी की सक्रियता से दूरी बढ़ती गई और हाल ही में राजनीति से संन्यास की घोषणा हुई। यह घटना शिक्षकों जैसे पेशेवरों के लिए राजनीति में प्रवेश की कठिनाइयों को उजागर करती है।

किताबी ज्ञान बनाम असल अनुभव

एक पॉडकास्ट में ओझा ने पार्टी छोड़ने पर चर्चा की। उन्होंने व्यावहारिक राजनीति को चुनौतीपूर्ण बताया। ओझा बोले कि पत्रकारिता की तरह राजनीति में भी सिद्धांत और व्यवहार अलग होते हैं। मार्क्स या लेनिन पढ़ना आसान है लेकिन उन सिद्धांतों को मैदान में लागू करना मुश्किल। उनका सैद्धांतिक आधार ठोस था मगर व्यावहारिक हिस्सा कमजोर रहा। यह बात उन शिक्षकों को सोचने पर मजबूर करती है जो राजनीति में कदम रखना चाहते हैं।

नकारात्मक माहौल का असर

ओझा ने मौजूदा राजनीति को नकारात्मक करार दिया। उन्होंने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का जिक्र किया जो 1951 में शिक्षक से सीएम बने। तब समाज जाति से ऊपर उठकर योग्यता पर ध्यान देता था। लेकिन 2025 में ओझा जैसे व्यक्ति हार जाते हैं। यह बदलाव भारतीय राजनीति की दिशा पर सवाल उठाता है जहां नकारात्मकता हावी है।