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Up Kiran, Digital Desk: देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर नए सियासी समीकरणों की ओर इशारा कर रही है। गृह मंत्री अमित शाह द्वारा डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को "मेरे मित्र" कहकर पुकारने के बाद जहां भाजपा में अटकलों का दौर शुरू हुआ, वहीं अखिलेश यादव ने भी 2027 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ने का ऐलान कर राजनीतिक पिच और गर्म कर दी है। इस सब के बीच एक नाम फिर से चर्चा के केंद्र में आ गया है — स्वामी प्रसाद मौर्य।
कभी मायावती पर तीखे निजी हमले कर बहुजन समाज पार्टी छोड़ने वाले स्वामी प्रसाद के तेवर इन दिनों बदले-बदले नजर आ रहे हैं। बाराबंकी की एक जनसभा में उन्होंने भाजपा के साथ-साथ समाजवादी पार्टी पर भी हमला बोला, लेकिन बसपा और मायावती को लेकर नरमी बरती। उन्होंने मायावती को अब तक का "सबसे बेहतर मुख्यमंत्री" बताते हुए कहा कि "अब बहनजी वैसी नहीं रहीं, जैसी पहले थीं।"
एक दिन पहले उन्होंने बसपा के नेशनल कोऑर्डिनेटर आकाश आनंद को भी शुभकामनाएं दीं और यह कहा कि उन्हें पार्टी में और अधिक महत्व मिलना चाहिए।
क्या यह बसपा में वापसी का इशारा है?
स्वामी प्रसाद मौर्य की इन टिप्पणियों ने सवाल खड़ा कर दिया है — क्या वे बसपा में वापसी की जमीन तैयार कर रहे हैं? बसपा के पुराने दौर में वे मायावती के बेहद करीबी और ताकतवर नेता माने जाते थे। 1996 में बसपा के टिकट पर डलमऊ से विधायक बनने के बाद उन्होंने मायावती सरकारों में अहम मंत्री पद संभाला।
हालांकि, 2012 के बाद बसपा की सियासी पकड़ ढीली पड़ी और 2014 में पार्टी लोकसभा में शून्य पर सिमट गई। मौर्य ने 2016 में मायावती पर टिकट बेचने जैसे गंभीर आरोप लगाकर बसपा छोड़ दी और भाजपा का दामन थाम लिया। 2017 में भाजपा की जीत के बाद वे योगी सरकार में मंत्री बने, लेकिन 2022 के चुनाव से ठीक पहले उन्होंने इस्तीफा देकर सपा की ओर रुख किया।
लेकिन न तो भाजपा में, न ही सपा में उन्हें वह प्रभाव मिल पाया जो बसपा में था। 2022 के चुनाव में वे अपनी सीट भी हार गए।
‘जनता पार्टी’ और ‘लोक मोर्चा’ का असर नहीं दिखा
स्वामी प्रसाद मौर्य ने खुद की पार्टी बनाकर और ‘लोक मोर्चा’ गठबंधन के जरिए खुद को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित तो किया, लेकिन ज़मीनी सियासत में यह दांव भी प्रभावशाली नहीं रहा। ऐसा माना जा रहा है कि उन्हें यह एहसास हो गया है कि भाजपा-सपा की सीधी लड़ाई में तीसरे मोर्चे की सबसे मजबूत संभावना बसपा ही है।
वहीं, बसपा भी अपने पुराने नेताओं के जाने के बाद संगठनात्मक और सियासी संकट से जूझ रही है। ऐसे में स्वामी की नरम भाषा और मायावती की तारीफ को राजनीतिक वापसी का ‘सॉफ्ट सिग्नल’ माना जा रहा है।
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