Up Kiran, Digital Desk: सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद अहम टिप्पणी में 100 साल से भी ज़्यादा पुराने 'कर्मचारी मुआवजा अधिनियम, 1923' के एक प्रावधान पर सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने कहा है कि इस कानून में 'आश्रित' (dependent) की परिभाषा आज के सामाजिक और आर्थिक हालात के हिसाब से पुरानी पड़ चुकी है और इसे बदलने की ज़रूरत है। कोर्ट ने यह सुझाव संसद और केंद्र सरकार को दिया है।
क्या है पूरा मामला: यह मामला कर्नाटक के एक केस से जुड़ा है। एक महिला कर्मचारी की काम के दौरान मौत हो गई थी। महिला का एक 25 साल का बेटा था, जो बेरोज़गार था और पूरी तरह से अपनी माँ की कमाई पर ही निर्भर था। जब बेटे ने मुआवज़े के लिए दावा किया, तो उसे यह कहकर मना कर दिया गया कि कानून के मुताबिक, 18 साल से ज़्यादा उम्र का बेटा 'आश्रित' की श्रेणी में नहीं आता, भले ही वह कमा न रहा हो।
मामला हाईकोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने भी माना कि मौजूदा कानून के हिसाब से वे बेटे को मुआवज़ा नहीं दिला सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने क्यों कहा कानून बदलने को?
कानूनी तौर पर भले ही फैसला कंपनी के हक में आया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की कमी को उजागर किया। बेंच ने कहा:
आज की सच्चाई अलग है: कोर्ट ने कहा कि आज के समय में पढ़ाई पूरी करने और नौकरी पाने में 25 साल की उम्र हो जाना आम बात है। ऐसे में यह मान लेना कि 18 साल का होते ही बेटा कमाने लगता है और माता-पिता पर निर्भर नहीं रहता, यह असलियत से कोसों दूर है।
कानून का मकसद पूरा नहीं हो रहा: कोर्ट ने कहा कि इस मुआवज़ा कानून का मकसद कर्मचारी की मौत के बाद उसके परिवार को आर्थिक सहारा देना है। लेकिन यह पुराना नियम इस मकसद को ही पूरा नहीं कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा, "विधायिका (संसद) को इस कानून की धारा 2(1)(d) में 'आश्रित' की परिभाषा पर फिर से विचार करना चाहिए और उसमें ज़रूरी संशोधन करने चाहिए।" कोर्ट ने अपनी इस टिप्पणी की कॉपी कानून मंत्रालय को भी भेजने का आदेश दिया है।
यह मामला दिखाता है कि कैसे हमारे कई पुराने कानून आज की सामाजिक सच्चाइयों के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं और उन्हें बदलने की सख्त ज़रूरत है।
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