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Up Kiran, Digital Desk: सनातन धर्म में बड़ों का पैर छूने की परंपरा एक गहरे सम्मान और संस्कार का प्रतीक मानी जाती है। यह आदत न केवल किसी की उम्र या अनुभव का सम्मान करने का तरीका है, बल्कि इस प्रक्रिया में आशीर्वाद प्राप्त करने की भी भावना छुपी होती है। लेकिन क्या इस प्रथा को आज के समय में यथावत बनाए रखना सही है? क्या यह सिर्फ एक सामाजिक परंपरा बन कर रह गई है, या फिर इसमें कुछ और गहराई भी है? संत प्रेमानंद महाराज के विचारों से इस पर बहस को नया मोड़ मिलता है।

पैर छूने पर संत प्रेमानंद महाराज का नजरिया क्या
वृंदावन के प्रसिद्ध संत प्रेमानंद महाराज इस पर अपने विचार साझा करते हुए कहते हैं कि पैर छूने से किसी के पुण्य का नाश नहीं होता। इसके लिए महत्वपूर्ण है हमारी मानसिकता। अगर हम किसी परंपरा के तहत बड़ों के पैर छूने का आदान-प्रदान करते हैं, तो इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यदि हमारे भीतर यह भावना उत्पन्न हो कि हम श्रेष्ठ हैं या इस क्रिया से हमें विशेष आशीर्वाद मिलेंगे, तो पुण्य को नुकसान हो सकता है। महाराज का यह स्पष्ट कहना है कि, "पैर छूने और प्रणाम करने का उद्देश्य केवल श्रद्धा और सम्मान का होना चाहिए, न कि किसी व्यक्तिगत लाभ की आशा।"

संत प्रेमानंद का यह भी कहना है कि अगर कोई व्यक्ति इस परंपरा से असहज महसूस करता है तो उसे भगवान की भावना से अभिवादन करना चाहिए। उनकी मान्यता है कि हर व्यक्ति में भगवान का रूप होता है, और यही श्रद्धा का वास्तविक रूप है।