Up Kiran, Digital Desk: हम सब दिवाली मनाते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारी दिवाली के ठीक 15 दिन बाद, कार्तिक मास की पूर्णिमा को देवता भी पृथ्वी पर आकर दिवाली मनाते हैं? जी हाँ, इसी पवित्र और अद्भुत दिन को 'देव दिवाली' या 'देव दीपावली' कहा जाता है। इस दिन शिव की नगरी काशी (वाराणसी) के घाट हज़ारों-लाखों दीयों की रौशनी से ऐसे जगमगा उठते हैं, मानो सारे तारे ज़मीन पर उतर आए हों।
यह दिन सिर्फ़ दीये जलाने का ही नहीं, बल्कि अधर्म पर धर्म की एक बहुत बड़ी जीत का जश्न मनाने का भी है। इस दिन को 'त्रिपुरारी पूर्णिमा' भी कहते हैं, और इसके पीछे भगवान शिव के पराक्रम की एक बहुत ही रोचक कथा जुड़ी हुई है।
क्यों मनाई जाती है देव दिवाली? पढ़िए त्रिपुरासुर वध की कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार, तारकासुर नाम का एक बहुत शक्तिशाली असुर था। उसके तीन पुत्र थे - तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली। अपने पिता की तरह ये तीनों भी बहुत बलशाली और क्रूर थे। तीनों ने मिलकर ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की, ताकि वे अजेय और अमर हो सकें।
उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर जब ब्रह्मा जी प्रकट हुए, तो उन तीनों ने अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्मा जी ने उन्हें समझाया कि इस सृष्टि में जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है, इसलिए वह अमरता का वरदान नहीं दे सकते।
तब उन तीनों ने अपनी दुष्ट बुद्धि का प्रयोग करते हुए एक बहुत ही अनोखा और मुश्किल वरदान मांगा। उन्होंने कहा, हे प्रभु, आप हमारे लिए तीन अलग-अलग नगरों का निर्माण करें। एक सोने का, एक चांदी का और एक लोहे का हो। ये तीनों नगर आकाश में अलग-अलग घूमते रहें। हम इन पर हज़ारों साल तक राज करें, और हमारी मृत्यु तभी हो जब कोई देवता इन तीनों नगरों को, जब वे एक सीध में आएं, सिर्फ़ एक ही बाण से भेद दे। ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह दिया।
जब तीनों लोकों में मचा हाहाकार
वरदान मिलते ही, मय दानव ने उनके लिए तीन अद्भुत पुरियों (नगरों) का निर्माण कर दिया, जिन्हें 'त्रिपुर' कहा गया। इन अजेय नगरों में बैठकर तीनों असुर भाइयों ने तीनों लोकों - स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल - में हाहाकार मचा दिया। उन्होंने देवताओं को परेशान किया, ऋषि-मुनियों के यज्ञ भंग किए और मनुष्यों पर अत्याचार किए।
उनके आतंक से परेशान होकर सभी देवता भगवान शिव की शरण में गए और उनसे त्रिपुरासुर से बचाने की प्रार्थना की।
जब शिव बने त्रिपुरारी
देवताओं की पीड़ा सुनकर भगवान शिव, त्रिपुरासुर का संहार करने के लिए तैयार हो गए। लेकिन यह काम आसान नहीं था। तीनों नगरों को एक ही बाण से भेदने के लिए एक दिव्य और शक्तिशाली रथ और बाण की आवश्यकता थी।
तब सभी देवताओं ने मिलकर एक अद्भुत रथ का निर्माण किया:
इस दिव्य रथ पर सवार होकर भगवान शिव उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगे, जब वे तीनों नगर एक सीध में आएं। हज़ारों साल की प्रतीक्षा के बाद, जैसे ही कार्तिक पूर्णिमा के दिन प्रदोष काल में वे तीनों नगर एक सीधी रेखा में आए, भगवान शिव ने अपने दिव्य बाण को धनुष पर चढ़ाया और छोड़ दिया। वह एक ही बाण तीनों पुरियों को भेदता हुआ निकल गया और तीनों असुर भाई जलकर भस्म हो गए।
देवताओं ने मनाया जश्न
इस महाविनाशकारी असुर का अंत होने पर सभी देवताओं ने प्रसन्न होकर भगवान शिव की नगरी काशी में दीये जलाकर उत्सव मनाया। देवताओं द्वारा मनाए गए इसी उत्सव को देव दिवाली कहा जाता है। उस दिन से भगवान शिव का एक नाम 'त्रिपुरारी' भी पड़ गया, यानी त्रिपुर का अंत करने वाले।
आज भी, उसी परंपरा को निभाते हुए कार्तिक पूर्णिमा के दिन वाराणसी के घाटों पर लाखों दीये जलाकर देव दिवाली का पर्व मनाया जाता है और अधर्म पर धर्म की विजय का जश्न मनाया जाता है।
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