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Up Kiran, Digital Desk: हर धर्म की अपनी परंपराएं होती हैं, जब बात मरने के बाद शव के अंतिम संस्कार की आती है। जहां एक ओर हिंदू धर्म में दाह संस्कार की परंपरा है, वहीं इस्लाम धर्म में शव को जलाने के बजाय दफनाया जाता है।

इस्लाम में शव को दफनाने की परंपरा का महत्व

इस्लाम धर्म के अनुसार, मौत के बाद शव को दफनाना अनिवार्य माना जाता है। इस्लाम में दाह संस्कार को हराम माना जाता है और इसे मृतक के अपमान के रूप में देखा जाता है। यह परंपरा पैगंबर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) द्वारा दी गई थी और यह कुरान और हदीस में भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित है।

अंतिम संस्कार की तैयारी में गुस्ल (धोना) और कफ़न का महत्व

इस्लाम में शव को दफनाने से पहले उसे धोने (गुस्ल) और कफ़न देने की प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक है। शव को तीन बार धोने की सलाह दी जाती है। इसके बाद, शव को सफेद चादर से ढक कर दफनाने की तैयारी की जाती है। कफ़न में तीन सफेद चादरों का इस्तेमाल होता है, और शव को नमाज की मुद्रा में रखना चाहिए।

इस्लामिक दृष्टिकोण से शव जलाना क्यों नहीं किया जाता?

इस्लाम धर्म के अनुसार, शरीर अल्लाह की अमानत है, और इसे जलाना या अपमानित करना धार्मिक दृष्टि से गलत माना जाता है। इसके अतिरिक्त, आग का संबंध नरक की सजा से है, और शव को जलाना मृत आत्मा को कष्ट देना माना जाता है। इस्लाम में विश्वास है कि कयामत के दिन शरीर को पुनः जीवित किया जाएगा, और इसलिए इसे दफनाना क़ीमती जीवन के सम्मान के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।

शव को किबला की ओर दफनाने का महत्व

इस्लाम में शव को दफनाते समय उसे किबला यानी मक्का की दिशा में रखा जाता है। यह धार्मिक विश्वास को दर्शाता है कि मृतक का अंतिम संस्कार अल्लाह की दिशा में किया जा रहा है। शव को दफनाने के बाद, वहां उपस्थित समुदाय के सदस्य कब्र में तीन मुट्ठी मिट्टी डालते हैं और उसके ऊपर पत्थर या लकड़ी की परत लगाते हैं।